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सुनकर लोग ऐसे कामों से बचने लगे । बहुत थोडे लोगो ने ऐसे कामो में भाग लिया। लिया भी तो ऊारी मन से । अन्तकरण से ऐसे कामो को कभी अच्छा नही समझा । वास्तव में पहले ही "पाप" सुन लेने के बाद भला उनका मन ऐसे कामो में आगे कैसे बढ सकता था। एक तो स्वाभावत ऐसे परमार्थ के कार्यो में हमारी रुचि का अभाव, ऊपर से ऐमे उपदेशांका सहयोग, फिर क्या था मानो 'ऊँघते को खाट मिल गई ।' खुर्ग -२ भाई लोग शीघ्र ही इस ओर झुक गये । उन्हें यह ध्यान नही रहा कि मनुष्य देह जो 'मोक्ष-साधना' में अपना प्रधान भाग रखती है इन उचित अवलम्बनो के बिना ज्ञानवान, नीरोग और सशक्त कैसे रहेगी और मोक्ष साधना में आगे कैसे बढ सकेगी ।
इन सती ने इतनी कृपा जरूर की कि साधु के ठिकाने जाने में 'पाप' नही वतलाया । यदि आज श्रावक लोग कही ऐसा समझ लेते कि साधु के ठिकाने जाने में भी 'पाप' है तो हम उनको कौन-सा उदाहरण देकर समझाते कि ऐसा बोलना ही 'पाप' है ।
मुनिराज के ठिकाने जाने में धर्म माना पर उस क्रिया को जरा परख लें मुनिराज के ठिकाने चाहे दिन में गये हो या रात में, घूप में गये हो या वर्षा में, मोटर या रेल से गये हो या पैदल, जूते पहन कर गये हो या नगे पैर, समीप से गये हो या हजार मील दूर से, अपनी आँखो से देखते हुए गये हो या दूसरो को लकडी पकडा कर, जीवो की हिंसा तो मुनिराज के दर्शन होने से पहले ही हो जाती है । फिर भी किया के पहले ग्रग को प्रधानता न देते हुए पूछने पर यही कहेंगे - " मुनिराज के ठिकाने जाने में धर्म है ।" जीव हानि प्रत्यक्ष देखते हुए भी 'पाप' नही कहते श्रीर न ऐसे कार्य को अपनाने की मनाई ही करते है, न बुरा ही समझते है । वास्तव में 'पाप' कहना ही पाप है, व्यवहार के विपरीत है । ऐसा कहते तो समाज पर विपरीत प्रतिक्रिया होती । हर एक मनुष्य में इतना विवेक नही होता कि वह शीघ्र यह समझ जाय कि आप किस आशय से पाप कह रहे है । वह तो सिर्फ 'पाप' या 'धर्म' के कहने पर गौर करता है। 'पाप' कह देने से उस कार्य को करने की मनाई समझता है और 'धर्म' कह देने से उस कार्य को करने का समर्थन । तव श्रीर व्यवहारी के लिये भी यही उपयोग क्यो नही रक्खा गया ? जिस शरीर ने आत्मा को साधु के ठिकाने तक पहुंचाया और उनके दर्शनो का लाभ दिलाया, क्या उसके सहारे के बिना यह सम्भव है ? क्या उसकी उपेक्षा से हम
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