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रख देते है कि कही वह जल में मर न जाय पर सिर से जू को निकाल कर बाहर रख देने का क्या तात्पर्य है ? उसे बचा रहे है या उसके जीवन को खतरे में डाल खुद बचना चाहते है ? चपेट में आकर मरने वाले जीवो का तो हिसाव ही अलग है पर जान-बुझकर मुनिराज अपने दोनो हाथो से जो अकार्य करते हैं, उपरोक्त उदाहरण से इसे अच्छी तरह परखा जा सकता है। __एक और उदाहरण लें। मुनिराज के पेट में कृमि हो गई या शरीर पर दाद हो गये। वे औपधि का सेवन करेंगे या नहीं? औषधि के प्रयोग से जीवो का नाश होगा या नही? फिर जीवो का नाश क्यो? जिन्हें हिंसा करनी ही नहीं, जो छ काया के जीवो के रक्षक कहे जाते हैं उनका यह व्यवहार कसा वेचारे गरीबो का नारा ? वह भी एक पच महाव्रतधारी मुनिराज से ? यह सब केवल स्यूल शरीर के लिए है या किसी और के लिए? उत्तर इतना ही देना है कि जान-बुसकर जीवो के प्रत्यक्ष मरने का कारण बनते हुए भी मुनिराज पूर्ण अहिंसक कमे कहलाते है ? यदि कहला सकते हैं तो यह कहा जा सकता है कि जैन धर्म अपेक्षा से प्राणी से जान-बूझकर प्राण-हानि होने पर भी 'अहिंसा' ही स्वीकार करता है।
स्थावर जीवो के साथ मुनिराजो के व्यवहारो का भी निरीक्षण करें। भक्तो द्वारा मारे जाने के बाद उनकी लागें तो रोज विना रहम दांतो के नीचे चवाई जाती हो है, वर्षा में ठल्ले (गौच जाते) पधारते हुए, हम निळले हिंसक लोगों के ममान अभागे अपकाय जीवो की घात, अपनी पूरी समझदारी के साथ, ये करते जाते हैं। कहां गया दया का भाव ? जिस शरीर को समस्त जीवो का रक्षक घोषित किया था, उसके द्वारा ऐसी क्रिया। कितनी विडम्वना है यह कि रक्षक ही भक्षक बन जाय। अपने को निर्दोप सिद्ध करने के लिये वे कहते हैं -'भगवान की ऐनी उन्हें आज्ञा है, धर्म तो भगवान की आज्ञा में है।' स्वय को निर्दोप सिद्ध करने के लिये भगवान पर दोपारोपण । तव यह कहा जा सकता है कि भगवान ही उन जीवो की मृत्यु के कारण है। अस्तु ऐसी आज्ञा देकर परमात्मा ने जीव तो निश्चित रूप से हनन करवाये ही पर मुनिराज को अहिंसक घोषित करके हमारे इन समझदार भाइयो के सुसिद्धान्त का हनन क्यो करवा डाला? प्रत्यक्ष जीव मारे जाय और हिंसा न समझी जाय ? उन जीवो को मनिराज द्वारा मारे जाने पर कप्ट हुआ या नहीं ? क्या वे स्वेच्छा