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. अन्यायी जीवो से रक्षा :-ऐसे. और भी अनेक प्रसंग उपस्थित हो सकते है । जैसे किसी गाव में नरभक्षी वाघ घुस आया हो,कुत्ता पागल वन काटने लगा हो, साड विगड कर मारने लगा हो, साँप खुले मैदान में पीछा करता हो इत्यादि । ऐसे प्रसगो पर भी उसी नीरस भाव से अन्तिम क्षणो मे अन्तिम उपाय को व्यवहृत करना चाहिये। हालाकि यह हमारे चारित्र्य पर हमला नही है फिर भी हम पर उनका अनुचित आक्रमण तो है ही.। इसलिए ऐसे जीव भी एक निश्चित. सीमा में दोपी कहे जा सकते है। उनकी विकृत्ति, अव्यावहारिकता
और अप्राकृतिक ढग हमें अपने और अपने समाज के वचाव के लिए विवश कर देते हैं। हमारा ध्येय उनके अनुचित आक्रमण को रोकते हुए हमारे बचाव में है। उन्हे मारने, सताने या वदला लेने से नहीं। यहाँ भी हम हिंसक नही कहे जा सकते वल्कि समाज व्यवस्था की अपेक्षा से उचित ही कहे जायेगे। यहाँ मुनिराज का व्यवहार हमारे से भिन्न हो सकता है। उनका अन्तिम हथियार उनका कायोत्सर्ग है। हमारी जिम्मेवारी उनसे भिन्न है, सफलता प्राप्ति भिन्न है, शक्ति भिन्न है, और आवश्यकता भी भिन्न है । न्याय की तराजू हमारे हृदय पटल पर स्थित है.। सच्चा न्याय जव चाहे तव प्राप्त कर सकते है । ऐसे प्रसगो से हमारे ग्रन्थ भरे पडे है। महापुरुषो ने तो हमारे दिल के भावो के आधार पर ही निर्णय किया है और उसी को प्रधानता दी है।
'त्रस एवं स्थावर' को अन्तर :-हमारा मुख्य विपय स्थावर जीवो की हिंसा पर विचार करने का है क्योकि प्रभु-पूजा में द्रव्य ही काम में लिए जाते हैं।
सजीवो की हिंसा का प्रसग तो इस कारण ले लिया गया कि उनकी हिंसा तो और भी अधिक वुरी मानी गई है। जब त्रस जीवोकी हिंसा का स्वरूप हमारी समझ में आ जाता है तो स्थावर जीवो से सम्बन्धित हिंसा का स्वरूप समझने में हमें देर नही लगेगी। .. , .
उपयोग लेते दया रखने का कहना शर्मनाक :-कई लोगो की यह धारणा है कि "त्रस और स्थावर जीवोकी हिंसा एक समान है । हम अपने स्वार्थको दृष्टि से.चाहे कुछ भी समझें।" पर यह धारणा सही नही है । अपनी स्थितिको समझते हुए बस और स्थावर जीव एक समान नहीं समझे जा सकते। जहाँ एक हमारे जीवन के साथी है वहाँ दूसरे हैं हमारी देह की खुराक । हम भोजन करने वैठे, तरकारी में एक मक्खी या मच्छर गिर गया। कितना अफसोस करते है कि