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गाय शब्द से सम्बोधित करने के लिए वाध्य होना पड़ा? इससे भी आगे अधिक महत्व की बात तो यह है कि-"आकार प्राप्त इस पत्थर के टुकडे ने कुछ क्षणों के लिए सम्पूर्ण ससार से हमारे ध्यान को हटाकर केवल गाय परही केन्द्रित कर दिया।" यह मूर्ति की महान् विशेषता है ! यही असली रहस्य है !! प्रत्येक मूर्ति हमारे मन्तिाक पर अपना-अपना असर करती है।
मुख्य रहस्य :-असली वस्तु की याद आते ही उसके गुण-दोप तो स्वतः हमारे मस्तिष्क में टकराने लगते हैं। उन गुण-दोपो से ओत-प्रोत होना या नहोना हमारी इच्छा और शक्ति पर निर्भर है पर एक बार तो हमारा ध्यान उस भोर चला ही जाता है। तथ्य यही है कि गाय की मूर्ति को देखकर गाय की विशेष रूप से याद हो आती है। उसकी उपयोगिता पर भी ध्यान जाता है और उसके सम्बन्ध में कई तरह के विचार उत्पन्न होते है। ऐसा होता है या नहीं इसका निर्णय तो हम स्वय ही कर सकते हैं। शंका में जो भी कमी महसूस की गई है वह 'द्रम वस्तुओ की प्राप्ति" की ही कमी है। द्रव्यो की प्राप्ति तो मूर्ति से सम्भव नही परन्तु मूल वस्तु के गुण-दोपो के स्मरण का मन के साथ गहरा सम्बन्ध है। "द्रव्य वस्तुओ की प्राप्ति" को प्रधान लक्ष्य के रूप में आगे रख कर, वस्तु के स्वरूप को विशेष रूप से याद दिलाने वाली मूर्तिकला के महान् महत्व कोन समझना ही अपने विवेक की कमी है। ____ महान सहारा: अव्यात्मवाद मे तो मूर्ति का सहारा सोने में सुगन्ध के समान है । भगवान की मूर्ति तो हमारे लिए और भी अधिक उपयोगी है। सोचिये, ध्यान नाथा में रहे खुद भगवान को यदि हम वन्दन, नमस्कार करते तो हमें क्या लाभ होता ऐसी अवस्था में न तो वे वाणी मुनाते, न आहार इत्यादि लेकर ही हमे करते और न अन्य किसी द्रव्य वस्तु की प्राप्ति ही हमें उनसे होती। उस समय तो वे मूर्तिवत् ही होते। उस अवस्था में जो भी लान हमें होता, वही लाभ उनकी मूर्ति को भावयुक्त वन्दन-नमस्कार कर प्राप्त किया जा सकता है। भावना चाहे ध्यानस्थ भगवान के सामने उपाजित की जाय अथवा उनकी मूर्ति के सामने,दोनों नवस्थाओं में हितकारी ही है। संभव है एक अवल्या से दूमरी अवस्था की भिन्नता के कारण हमारे भावो की तीव्रता में अन्तर रह । जाय पर परिणाम दोनो जगह समान ही होगा। मन भर सोना न मिले, रत्ती भर ही नही, सोना सोना ही होगा। आज जब ससार में भगवान वर्तमान नहीं