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दिया गया है, तो दीपक का काम यह है, कि वह जलता रहे और अपना प्रकाश फैलाता रहे। रात भर भी यदि कोई व्यक्ति उस कमरे में न आए और काम करे, तब भी दीपक जलता। ही रहेगा। कमरे में कोई अाए अथवा न आए, दीपक का काम है, कमरे को प्रकाशित करते जाना। कोई पूछे उससे कि क्यों व्यर्थ में अपना प्रकाश फेंक रहे हो? जब तुम्हारे प्रकाश का कोई उपयोग नहीं हो रहा है, तब क्यों अपना प्रकाश फैला रहे हो? यहाँ तो कोई भी नहीं है, जो तुम्हारे प्रकाश का उपयोग कर सके। दीपक के पास भाषा नहीं है। अगर उसके पास भाषा होती, तो वह कहता कि मझे इससे क्या मतलब ? कोई मेरा उपयोग कर रहा है, अथवा नहीं कर रहा है, इससे मुझे कोई प्रयोजन नहीं है। मेरा अपना काम है, जलते जाना । प्रकाश फैलाते जाना ही मेरा स्वभाव है। किसी भी पदार्थ को अन्दर लाना या बाहर निकालना मेरा काम नहीं है, परन्तु जो पदार्थ जिस रूप में स्थित है, उसे उसी रूप में प्रकाशित कर देना ही मेरा अपना काम है। जो सिद्धान्त दीपक का है, वही सिद्धान्त ज्ञान का भी है। ज्ञान पदार्थ को प्रकाशित करता है, किन्तु पदार्थ में किसी प्रकार का परिवर्तन करना ज्ञान का अपना कार्य नहीं हैं। ज्ञान एक गण है और उसका अपना काम क्या है। अपने ज्ञय को जानना। संसार में जितने भी पदार्थ हैं, वे सब ज्ञान के ज्ञेय हैं और ज्ञान उनका ज्ञाता है। ज्ञान अनन्त है, क्योंकि ज्ञेय अनन्त है, परन्तु ज्ञान जब तक आवृत है, तब तक वह अनन्त को नहीं जान सकता और जब उसका आवरण हट जाता है, तब वह असीम और अनन्त बन जाता है।
प्राचारांग सूत्र में एक उदात्त बोध-सूत्र है कि जो ज्ञाता है, वही आत्मा है और जो आत्मा है, वही ज्ञाता है।
'जे पाया से विनाया, जे विनाया से आया।'
आत्मा ज्ञान-स्वरूप है। चेतना आत्मा का गुण है । जहाँ आत्मा का अस्तित्व नहीं, वहाँ ज्ञान का भी अस्तित्व नहीं। जहाँ लक्ष्य है, वहीं लक्षण है। जहाँ लक्षण है, वहीं लक्ष्य है। प्रात्मभूत लक्ष्य और लक्षण कभी अलग-अलग नहीं रह सकते। जैसे सूर्य और प्रकाश कभी अलग-अलग नहीं किए जा सकते । जहाँ अग्नि है, वहीं उष्णता है, जहाँ मिश्री है, वहीं मिठास है। जहाँ आत्मा है, वहाँ ज्ञान है।
संसार के पदार्थों का ठीक-ठीक विश्लेषण करने पर यह पता चलता है कि गुण और गुणी एक-दूसरे से कभी भी अलग-अलग नहीं हुए, और न कभी होंगे ही। दीपक की लौ और दीपक की लौ का प्रकाश, कभी एक-दूसरे से अलग नहीं रह सकते, उसी प्रकार प्रात्मा और आत्मा का ज्ञान, कभी एक-दूसरे को छोड़ कर नहीं रह सकते। दोनों में उभयमुखी व्याप्ति है।
आत्मा और ज्ञान का सम्बन्ध एक-पक्षीय सम्बन्ध नहीं, उभय-पक्षीय है। जहाँजहाँ आत्मा है, वहाँ-वहाँ ज्ञान है, और जहाँ-जहाँ ज्ञान है, वहाँ-वहाँ आत्मा भी अवश्य है। सैद्धान्तिक दृष्टि से यह ज्ञान और आत्मा का उभय-पक्षीय सम्बन्ध है। ज्ञान कभी आत्मा से अलग नहीं हो सकता, चाहे संसारदशा हो या मुक्तदशा। चूंकि ज्ञान और प्रात्मा का वियोग होने का मतलब ही है--चेतन का जड़ हो जाना। और यह न कभी हुआ है, न कभी हो सकेगा। इसलिए यह सिद्ध है कि आत्मा ज्ञान-स्वरूप है। ज्ञान प्रात्मा का आत्मभूत स्वरूप है।
चेतना का केन्द्र :
वेदान्त में कहा गया है--विज्ञानं ब्रह्म' विज्ञान ही ब्रह्म है, परमात्मा है। और उसके आगे कहा है--'तत्त्वमसि'--तू वह है। अर्थात् तू ही ज्ञान स्वरूप परमात्मा है। भारतीय-दर्शन की यह विशेषता रही है कि वह शरीर, इन्द्रिय और मन तथा उसके विकल्पों के घने जंगल के बीच भी आत्मा के स्वरूप की पहचान कर लेता है। शरीर, इन्द्रिय और
चेतना का विराट रूप
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