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वि संवत् ६१८ चैत्र शु० २ का एक प्राकृत शिलालेख, जो घटियाला (जोधपुर मारवाड़) से प्राप्त हुआ है, जिसमें प्रतिहारवंशी राजा कक्कुक के प्रशस्त कार्यों का उल्लेख है, उसमें जिनदेवका दुरित विनाशक, सुख जनक भवन का निर्माण समर्पण जनानुराग, कीर्ति स्तम्भों के साथ सूचन है कि "उसने विषम प्रमंग में गिरि ज्वाला से प्रज्वलित पल्ली (पाली) से गोधन आदि ग्रहण कर रक्षा की थी, और भूमि को नीलोत्पल आदि की सुगन्ध से सुगंधी, तथा प्राम, महुडे और ईख के वृक्षों से मधुर रमणीय बनाई थी।"---यह शिलालेख, जर्नल रोयल एशियाटिक सोसायटी' सन् १८९५ में पृ० ५१६ से ५१८ में मुशी देवीप्रसादजी के 'मारवाड़ के प्राचीन लेख' में तथा सद्गत बाबूजी पूरनचंदजी नाहर के 'जैन लेख संग्रह' (खण्ड १ पृ० २५६ से २६१) में प्रकाशित हुआ है, तथा कण्ह (कृष्ण) मुनि नामक लेख (जैन सत्यप्रकाश वर्ष ७ दीपोत्सवी अंक) में मैंने दर्शाया है उसमें निर्दिष्ट पल्ली प्रस्तुत पाली नगरी समझनी चाहिए । जिस प्राचीन स्थान से पल्लीवाल (पालीवाल) वैश्यों, ब्राह्मणों के ज्ञाति और श्वे. जैन मुनियों के पल्लीवाल गच्छ की प्रसिद्ध हुई है। विक्रम की१० वीं शताब्दी में इसके ऊपर अग्नि प्रकोप जैसी विषम आपत्ति आई थी उस समय सद्गुणी राजा कक्कुकनेवहाँ गोधन आदि की समयोचित रक्षा की थी ।
वि० सं० १३८६ में जिनप्रभसूरिजी ने विविध तीर्थकल्प (सिंधी जैन ग्रन्थमाला ग्र. १०, पृ० ८६) में तीर्थनामधेय संग्रहकल्प में सूचित किया है अनेक प्राचीन स्थानों में वीर का तीर्थ स्थान था, उनमें 'पल्लयां' शब्द से इस पल्ली (पाली) का भी स्मरण है, । वहाँ भी भगवान् महावीर का प्राचीन जैनमन्दिर था। सिद्धराज जयसिंह के मित्र खंडि ल्लगच्छ के विजयसिंहसूरि शिष्य वीराचार्य पाटण (गुजरात) से विद्या-बलसे आकाश मार्ग द्वारा पल्ली पुरी में पहुँचे थे । यह घटना
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