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नाहटा जिनका परिचय, प्रतिकृति साथ इस पुस्तक में [पृ० १७६ से १८५ तक ] पाठक पढ़ेगे, उनका भी सहकार इसमें शामिल है। __ सद्गत दौलतसिंहजी, 'प्राग्वाट इतिहास' के लेखन समय से हमारे परिचित मित्र रहे, उनके सुपुत्र फतहसिंह की तर्फ से, इस कार्य के लिए दो महीने पहिले दो शब्द ( भूमिका ) लिख देने के लिए सूचना प्राई, श्री नन्दनलालजी का भी प्रेरणा पत्र पाया, मैं अन्यान्य कार्य में व्यग्र था, मेरा ऐतिहासिक लेख संग्रह' भी अभी प्रकाशित होरहा है। और मैं हिन्दी में कम लिखता हूँ, तो भी कुछ लिखने के लिए अन्तरात्मा ने प्रेरणा की। इसमें लेखक ने विषय क्रम से प्रकरण बार परि श्रम से लिखा है । पल्ली (पाली) स्थान की प्राचीनता, और पल्लीवाल वंश की प्रशस्तियां के विषय में मैं आगे कुछ निवेदन करना चाहता हूँ। मेरा अभिप्राय है कि विक्रम की बारहवीं शताब्दी से पन्द्रहवी शताब्दी तक पल्लीवाल जाति वंश प्रायः श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन रहा। पीछे कई कारणों से भिन्न २ सम्प्रदाय मानने लगा हो । श्रीमाल, प्राग्वाट ( पोरवाड़-पोरवाल ) प्रोसवाल सज्जनों की तरह पल्लीवाल सजनों को भी उनके कई कुल कुटुम्बों को व्यापार व्यवसाय वृत्ति, निर्वाह श्रादि की अनुकूलता से भिन्न भिन्न समय में, भिन्न भिन्न स्थानों में इधर उधर दूर दूर देश विदेश में निवास करना पड़ा है । उन्होंने अपनी दक्षता से, सज्जनता से वहां वहां अपना संगठन कर लिया मालूम होता है । पल्लीवाल जैन समाज, पूर्वजों के सन्मार्ग पर चल कर, एकता से अपना उत्कर्ष सिद्ध करे यही शुभेच्छा है।
पल्ली (पाली) की प्राचीनता
विक्रम की दसवीं शताब्दी मे पल्ली पर अग्नि का उपद्रव
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