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नतिक समस्या
विषय-प्रवेश-मनुष्य अन्य जीवधारियों से अधिक श्रेष्ठ-स्थिति में है। वह बौद्धिक और विवेकशील है। उसके कर्म स्वतन्त्र और स्वेच्छाकृत होते हैं। वह यह जानने का प्रयत्न करता है कि मानव गौरव के अनुरूप कर्म कौन से हैं। इस जिज्ञासा ने उसका ध्यान आवश्यक और कल्याणप्रद नियमों की ओर आकृष्ट किया। नैतिक प्राणी होने के कारण उचित-अनुचित की भावनाएँ उसके स्वाभाविक गुण हैं। उसमें कर्मों का समर्थन और विरोध करने की एक अबाध प्रवत्ति है । वह उनके प्रौचित्य-अनौचित्य के बारे में निर्णय देता है। अपने दैनिक जीवन के चिन्तन और वार्तालाप में वह अनेक प्रकार के निर्णय करता है-'वह दुष्ट है या सुजन है ? मुझे क्या करना चाहिए ? क्या मेरा कर्म अनचित था ? कर्तव्य और अधिकार के क्या अर्थ हैं ? शुभ और अशुभ का क्या अभिप्राय है ? जीवन का ध्येय क्या है ?' आदि। उसके मानस में उसके व्यक्तित्व के अनुरूप गुणों और अवगुणों की एक अनजानी परिभाषा रहती है। इस परिभाषा के अनुरूप ही उसका चिन्तनशील मानस उसके सम्मुख कुछ मान्यताएँ एवं आदर्श रखता है । अपने वातावरण, शिक्षा और वंशानुगत गुणों तथा जीवन सम्बन्धी अनुभवों के कारण वह अनायास ही मानने लगता है कि भठ बोलना, चोरी करना, शराब पीना, गाली देना आदि अनुचित कर्म हैं। वह अपने उन्नत स्वभाव के कारण स्वार्थ और असत्य का विरोध करता है। उसकी नैतिक चेतना यह जानना चाहती है कि उसकी धारणाएँ और विचार कहां तक ठीक हैं; वह इनका परीक्षण और स्पष्टीकरण करना चाहती है; बौद्धिक विश्लेषण द्वारा श्रेयस्कर कर्मों को अपनाना चाहती है। वह निःश्रेय
१८ / नीतिशास्त्र
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