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नियुक्तिपंचक टीकाकार ने 'एतदेव व्याचिख्यासुराह भाष्यकार:' का संकेत दिया है। ऐसी विवादास्पद गाथाओं को हमने लू प्रसंग, णैर्वापर्य एवं पूर्ण की प्राचीनता—इन सब दृष्टियों को ध्यान में रखते हुए नियुक्तिगाध के कम में रखा है। उदाहरणार्थ देखें गा. दरनि २२० । इसी प्रकार दशनि गा. ३४५ के लिए। दोनों चू िकारों ने इमा उवग्घातनिज्जुतिपदमगाहा तथा टीकाकार ने 'एतदेवाह भाष्यकार:' का उल्लेख किया है। इस या को भी हमने नियुक्तिगाथा के क्रम में रखा है।
दशकालिका में कुल मालाएं ऐसी हैं जिनको हमने भाष्यगाथा के क्रम में रहा है। ये गाथाएं प्रकाशित टीका में निर्युक्त-गाथः के क्रम में हैं, किन्तु चूर्णि में इन गाथाओं का कोई संकेत नहीं मिलता। हमने हेतु पुररसर उनको भाष्यगाथा सिद्ध किया है। देखें.....८९/१. ९५/३, ९६/२. १७/१. १२०/१, १२३/१, १५१/१, २१९/१, २१८/१ गाथाओं के टिप्पण। ये गाथाएं केवल व्याख्यारूए हैं,इनको मूल कम में न रखने से भी चालू विष्य-अस्तु में कोई अंतर नहीं अतः । उदाहरणार्थ गा. ९७/१ भाष्य की होनी चाहिए क्योंकि पा के उत्तर में 'गुरुराह अतएव' ला उल्लेख किया है। भाष्यकार ही नियुक्तिकार के बारे में ऐसा कह सकते हैं अन्यथा नियुक्तिकार यदि इस शब्दावलि के कहें तो मूल सूत्र के साथ इसका कोई संबंध नहीं जुड़ता. दूसरी बात इस गाथ' की विषय-वस्तु अगली गथा में प्रतिपादित है अतः यह भाष्यगाथा होनी चाहिए।
२. कही-कहीं टीका की मुद्रित प्रति में प्याओं के आगे 'भाष्यम्' का उल्लेख है किन्तु चूर्णि में वे गाधाएं स्पष्ट रूप रो नियुक्तिगाथा के रूप में व्याख्यात हैं। छंद, विषय-वस्तु और रचना-ौली की दृष्टि से भी थे नियुक्ति-गाथा की कसौटी पर खरी उतरती हैं। हरिभद्र ने अपनी व्याख्या में इन गाथाओं के बारे में कोई संकेत नहीं दिया है कि ये नियुक्ति की गाथाएं हैं अथवा भाष्य की? लगता है मुद्रित टीका में संपादक ने स्वयं ही गाथाओं के आगे 'भाष्यम् का उल्लेख कर दिया है अत: उसको प्रामाणिक नहीं माना जा सकता । दशवैकालिकनियुक्ति में अनेक भाष्य गाथाओं को हमने सप्रमाण एवं सतर्क नियुक्ति गाथ: के क्रम में रखा है। देखें दशनि ना. ९०, ९१, १२६, १९७, २०१-२०६, २०९, २१०, २१६ । उत्तराधम्यननियुक्ति २०३-२७ तक की गाथारों के लिए टीकाकार ने वैकल्पिक रूप से भाष्यगाथा का उल्लेख लिया है। यद्यपि ये भगष्य-गाथाएं अधिक संभाषित हैं पर हमने इनको नियुक्ति-गाथा के कम में रखा है। उनि गा. २२७ में 'सगलनिउणे पयत्थे जिणचउदसपुवि भासंति का उल्लेख भी स्पष्ट करता है कि ये गाया। बाद में किसी आचार्य द्वारा रचित हैं। अन्यथा चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहु अपने बारे में ऐसा उल्लेख नहीं करते। हमने इनको नियुक्तिगाधा के कम में रखा है।
३. दशावकालिकनियुकिा में कहीं-कहीं द्वारगाथाओं में उल्लिखित द्वार के आधार पर भी हमने गाथाओं का निर्णय किया है। जैसे—दशनि गा १३, १४, १८ ये तीन गाथाएं चूर्गि में निर्दिष्ट नहीं हैं। ६ दलसुखभाई मालवणिया ने इन्हें हरिभद्रकृत माना है किन्तु इन्हें हरिभद्र की रचना नहीं माना जा सकता क्योंकि हरिभद्र ने १३ वीं गाथा के प्रारम्भ में 'अवयवार्थं तु प्रतिद्वारं नियुक्तिकार एव यथावसरं वक्ष्यति' का तथा १४ वीं के प्रारम्भ में 'चाह नियुक्तिकार:' का उल्लेख किया है। यदि वे स्वयं रचना करते तो ऐसा उल्लेख नहीं करते। ये दोनों नियुक्ति की गाथाएं हैं, इसका सबसे बड़ा प्रमाण यही है कि १२ वी द्वारगाथा के जत्तो' द्वार की व्याख्या वाली गाथाएं जत्व चूर्णि में नियुक्ति के क्रम में