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महाराजा मानसिंहजी अवसर की ताक में लगे ठाकुर सवाईसिंह ने मारवाड़ के कुछ सरदारों और बीकानेर-नरेश सूरतसिंहजी को अपने पक्ष में कर जोधपुर और जयपुर नरेशों के बीच की यह मित्रता शीघ्र ही भंग करवादी । साथ ही उसने जयपुर पहुँच जगतसिंहजी को मारवाड़ पर चढ़ाई करने के लिये तैयार करलिया । यह देख खेतड़ी के शेखावत धौंकलसिंह को साथ लेकर जयपुर की सेना में आ मिले और शाहपुरे वालों ने भी उनका साथ दिया । इसी समय बीकानेर नरेश सूरतसिंहजी भी जयपुर महाराज की सहायता को चले । इन बातों की सूचना मिलते ही महाराज मानसिंहजी मेड़ते से परबतसर पहुँच युद्ध की तैयारी करने लगे और साथ ही इन्होंने जसवन्तराव होल्कर को भी शीघ्र आने का सन्देश भेज दिया । इस पर उसने तिहोद (किशनगढ़ राज्य में) पहुँच महाराज को फ़ौज खर्च के लिये रुपये भेजने का लिखा । उस समय स्वयं महाराज के पास रुपये की कमी थी। फिर भी इन्होंने इधर-उधर से इकट्ठे कर कुछ रुपये उसके पास भेज दिए । परन्तु इसी बीच जयपुर-नरेश की तरफ़ से एक बड़ी रकम रिशवत में मिल जाने से वह (होल्कर ) पुराने उपकार को भूल वहीं से वापस लौट गया और अमीरखाँ ने जो उसके साथ था जयपुर वालों का साथ दिया ।
जयपुर महाराजा जगतसिंहजी के मारोठ पहुँचने पर बीकानेर महाराज भी उनसे आमिले । इसके बाद दोनों नरेश तो वहीं ठहर गए, परन्तु उनकी आज्ञा से
१. पौकरन-ठाकुर सवाईसिंह के बहकाने में आकर जयपुर-नरेश जगतसिंहजी भी धौंकलसिंह
के पक्ष में होगए । २. ग्रांट डफ़की हिस्ट्री ऑफ मरहटाज़' में लिखा है कि वि० सं० १८६३ ( ई० स०
१८०७) में जिस समय होल्कर लॉर्ड लेक से सन्धि कर पंजाब से लौटा, उस समय जयपुर
और जोधपुर के बीच उदयपुर की राजकुमारी के लिये लड़ाई होरही थी और दोनों ही तरफ से सिंधिया और होल्कर से सहायता मांगी जा रही थी। इस पर (ई० स० १८०८ में ) सिंधिया ने शीराजीराव घाटे और बापू सिंधिया को १५,००० सवार देकर उधर रवाना किया और होल्कर ने अमीरखाँ को पठानों के साथ जाकर जयपुर की सहायता करने की आज्ञा दी । यद्यपि एक बार तो जयपुर वाले विजयी होगए, तथापि अन्त में अमीरखाँ इधर-उधर लूट-खसोट कर जोधपुर वालों से मिल गया। इसके बाद उसने धोके से भयानक खून कर दोनों नरेशों के बीच सन्धि करवादी। (देखो भाग २, पृ० ४००)।
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