Book Title: Madhyam vrutti vachuribhyamlankrut Siddhahemshabdanushasan Part 02
Author(s): Rajshekharvijay
Publisher: Shrutgyan Amidhara Gyanmandir

Previous | Next

Page 503
________________ मत्वर्थाधिकारः] मध्यमवृत्त्यवचूरिसंपलितम् / [443 * प्रत्ययः स्यात् / खण्डः कर्णोऽस्यास्ति कर्णः, नासि- कः / हीनादिति किम् ? कर्णवान् // 45 / / प्रव०-छिन्ना नासिका अस्यास्ति नासिकः // 45 / / अभ्रादिभ्यः // 7 / 2 / 46 // म०३०-अभ्र इत्यादिभ्यो मत्वर्थे 'अ' स्यान्मतुश्च' / अभ्राण्यस्मिन् सन्ति अभ्रनमः, उरसः, उरस्वान् // 46 // प्रव०-'यथादर्शनं मतुश्च / अभ्र, अशस् , उरस् , तुन्द, चतुर, पलित, जटा, घाटा, कर्दम, काम,वल,घटा,अम्ल,लवण इतिअभ्रादिराकृतिगणः। 2 (एवम् ) अास्यस्य सन्ति अर्शसो देवदत्तः / / 46 / अस्-तपो-माया-मेधा-स्रजो विन् // 7 / 2 / 47 // म. वृ०-असन्तेभ्यः, तपस् , माया, मेधा, सज् इति शब्देभ्यो मत्वर्थे 'विन् मतुश्च' स्यात् , असन्त,-यशस्वी, यशस्थान : सरस्वी, सरस्वान . 'सरस्वती; तेजस्वी, तपस्वी, [तपस्वान् ;] मायाथी, [ मायावान , ] मायी, मायिकः ; मेधावी, / मेधावान् ,] स्रग्वी, स्रग्वान् // 47 // प्रव०-'सरस्वती' इत्यत्र यदा नदीपर्यायः सरस्वतीशब्दः तदा सरः सरणं गमनमस्या अस्तीति सरस्वतीति वाक्ये मतु, 'मावर्णान्तोपान्त्य०' (2 / 194) इति मस्य वः, ततो डी, यदा तु भारतीवाचकः सरस्वतीशब्दः तदा सरो मानसाख्यादि अस्या अस्ति इति वाक्ये मतुः / तपसोऽसन्तत्वेन सिद्धेऽपि यदत्र पृथग् तपःशब्दप्रहणं तत् ज्योत्स्नाद्यणा बाधो मा भूदित्येवमर्थम् / उ'मायिकः', भत्र ब्रह्मादिपाठात् इकप्रत्ययः // 47 // आमयादीर्घश्च // 7 / 2 / 48 // म० वृ०-आमयात् 'विन् मतुश्च' स्यादामयस्य [विन्संयोगे] दीर्घश्च / आमयावी,आमयवान् // 48 // स्वान्मिन्नीशे // 72 // 49 // म० वृ०-स्वशब्दान्मत्वर्थे ईशे वाच्ये 'मिन्' स्यात , दीर्घश्चास्य [ शब्दस्य ] / स्वमस्यास्ति= स्वामी। ईशे इति किम् ? 'स्ववान् // 49 / / प्रव०-१.. ............"न तु भोग्यतया इति मिन् न भवति, मतुः भौत्सर्गिकः सिद्धः // 49 / / गोः / / 7 / 2 / 50 // म. वृ०-गोशब्दात् 'मिन् मतुश्च' स्यात् / गोमी, गोमान् // 50 // ऊों विनवलावस् चान्तः / / 7 / 2 / 51 / / ___म० वृ०-ऊशब्दात् विनवलप्रत्ययौ, 'तद्योगेऽस्य अस् इत्यन्तादेशश्च स्यात् / 'ऊर्जस्वी, ऊर्जस्वलः / मतुश्च- ऊर्वान् / कथमूर्जस्वान् ? ऊर्जयतेरस्प्रत्ययः मतुश्च // 51 // मव०-विनवलयोगे ऊशब्दस्य। ऊर्जनमू, 'ऋत्सम्पदादिभ्यः किप्' (5 / 3 / 114), ऊर्गस्यास्ति-ऊर्जस्वी // 51 // तमिस्रा-ऽऽर्णव-ज्योत्स्ना / / 7 / 2 / 52 / / म० ३०-तमिस्र अर्णव ज्योत्स्ना इति शब्दा निपात्यन्ते / 'तमिस्रा रात्रिः, तमिस्र तमःसमूहः, तमिस्राणि गुहामुखानि, तमस्थान [भत्र मतुश्च] / अर्णवः समुद्रः / उज्योत्स्ना चन्द्रप्रभा, अन्यत्र ज्योतिष्मती रात्रिः; निपातनस्येष्टविषयत्वात् / 52 / - प्रव०-'तमस्शब्दः, तमोऽत्रास्तीति तमिसा, निपातनात् रः प्रत्ययः उपान्त्यस्य च इत्वम् , तमिस्रः, आप, तमिस्रा रात्रिः, एवं तमिस्रम् / भर्णसशब्दो जलवाची, अर्णो जलमत्रास्ति भर्णवः, निपातनात् वः प्रत्ययः भन्तस्य चलोपः-मर्णवः। उज्योतिस्शब्दो दीप्तिवाचकः, ज्योतिर्दीप्तिरत्रास्ति, निपातनात् ज्योतिस्परतो नः प्रत्ययः, उपान्त्य'इ'इतिलुप्यते,त् तिष्ठति- ज्योत्स्ना। 'तमिस्रार्णवज्योत्स्ना' इति सूत्रे तमिस्र इति अकारान्त एव निपातः / "ज्योतिष्मती' इत्यत्र ज्योतिसशब्दो नक्षत्रवाचकः / // 52 // गुणादिभ्यो यः // 7 // 2 // 53 //

Loading...

Page Navigation
1 ... 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646