________________ चित्र में दो विभाग हैं। उसमें प्रथम विभाग में, व्याकरण सिर्फ भाषा के व्यवहार के लिये ही नहीं है, किन्तु मुख्यतया तत्त्वज्ञान की प्राप्ति द्वारा आत्मा को लगी हुई कर्म-जंजीर को तोड़कर मुक्ति प्राप्त करने के लिये है। अतः व्याकरणअध्ययन का मुख्य ध्येय मुक्ति प्राप्त करना ही है, यह बतलाया गया है। दूसरे विभाग में श्रीसिद्धहेम व्याकरण शुद्ध होने के कारण कसोटी में सफल हुआ, यह बतलाया गया है। श्रीसिद्धहेम व्याकरण की परीक्षा का वृत्तान्त कुमारपाल प्रबंध ग्रन्थ में निम्नोक्त बतलाया है: गुर्जर नरेश सिद्धराज जयसिंह की प्रार्थना से कलिकाल सर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्र सूरिजी ने एक ही वर्ष में पंचांग परिपूर्ण श्रीसिद्धहेम व्याकरण का प्रणयन किया। व्याकरण का प्रणयन होने के बाद सर्व प्रथम राजा की आज्ञा से व्याकरण को स्वर्णाक्षर से लिखाकर राजा के हस्ती की अंबाड़ी पर स्थापित करके उसके उपर श्वेत छत्र धारण करके, दोनों बाजु चँवर डोलते डोलते राजसभा में लाकर समग्र विद्वानों के समक्ष उसका साद्यंत वांचन किया गया। बाद उस व्याकरण को राजा के ज्ञान भंडार में स्थापित किया। कलिकाल सर्वज्ञ भगवंत की इस महिमा को ब्राह्मण वर्ग सहन न कर सका। उसने राजा के पास आकर कहा कि-राजन् ! यह व्याकरण शुद्ध है या अशुद्ध यह परीक्षा किये बिना राजा के ज्ञान भण्डार में रखना ठीक नहीं है। व्याकरण की परीक्षा के लिये उसको काश्मीर देश में सरस्वती माता की मूर्ति की समक्ष जलकुण्ड में डालना चाहिये / यदि वह व्याकरण जलकुण्ड में से बिना भिगे बाहर निकले तो शुद्ध है, अन्यथा अशुद्ध है। यह सुनकर राजा का मन शंकित हो गया। अतः राजा ने अपने प्रधानों को और विद्वानों को व्याकरण की पुस्तक देकर काश्मीर देश में भेजे। उन्होंने वहां जाकर काश्मीर देश के राजा, प्रधान मण्डल और विद्वानों के समक्ष व्याकरण को जलकुण्ड में डाला। व्याकरण दो घड़ी तक कुण्ड में रहा। बाद सरस्वती के प्रभाव से और कलिकाल सर्वज्ञ भगवंत प्रणीत होने की वजह से अत्यन्त शुद्ध होने से बिल्कुल भिगे बिना जैसा था वैसा ही बाहर आया। अत: उस देश के राजा, प्रधान मण्डल, पंडित वर्ग और सब लोग विस्मित हो गये। [चित्र में श्रीसिद्धहेम व्याकरण जलकुण्ड में भिगे विना उपर आया हुआ दिखाई पड़ता है। बायीं ओर काश्मीर देश के राजा, प्रधान मण्डल और पंडित वर्ग वगैरह लोग तथा दाहिनी ओर सिद्धगज जयसिंह के प्रधान और पंडित लोग जलकुण्ड में भिगे बिना उपर आया हुआ व्याकरण का सविस्मय निरीक्षण करते हमालूम पड़ते हैं। बाद में सिद्धराज के प्रधान और पंडित स्वदेश में आकर राजा को सारा वृत्तान्त सुनाया। राजा की इस व्याकरण पर भक्ति और आस्था थी ही, यह वृतान्त सुनकर श्रीसिद्धहेम व्याकरण के प्रति उसकी श्रद्धा तथा भक्ति और बढ़ गई। अतः राजा ने तीन सौ लेखकों के पास तीन वर्ष तक इस व्याकरण की प्रतियां लिखाई और अध्ययन-अध्यापन के लिये अढार देशो में भेजी गई। राजा की आज्ञा से सर्व लोग इस व्याकरण को पढ़ने लगे और पढ़ाने लगे। मनोहर प्रिंटिंग प्रेस, ब्यावर