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ॐ २० ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ ॐ
ओर से प्रवृत्ति करे। अर्थात् असंयम से निवृत्ति करे और संयम में प्रवृत्ति करे।"१ हिंसादि पापस्थान तथा कषाय, राग-द्वेष, मोह आदि जो पापकर्मबन्धक हैं, उनसे निवृत्त हो और शुद्ध या शुभ उपयोग में प्रवृत्त हो। अकर्मण्य बनकर बैठ जाना निवृत्ति नहीं है, सावद्य योगों से विरत होना निवृत्ति है। वैसे बैठे-ठाले व्यक्ति के मन में ऊलजलूल विचार उठेंगे। कहावत है-खाली दिमाग शैतान का कारखाना है। यही कारण है कि अप्रमाद-संवर के साधक को पूर्वोक्त दृष्टि से अपनी भावचर्यापूर्वक द्रव्यचर्या (प्रवृत्ति) करनी चाहिए। अप्रमत्तता के दृढ़ अभ्यासी आत्मवान् के लिए छह बातें
जो अप्रमत्तता का दृढ़ अभ्यासी हो जाता है, वह आत्मवान् हो जाता है। जिस व्यक्ति को आत्मा का भलीभाँति भान हो गया हो, जो प्रत्येक कार्य में शुद्ध आत्मा की दृष्टि से सोचता है, जिसका अहंत्व-ममत्व नष्ट या मन्द हो गया है, वह आत्मवान् है। इसके विपरीत जो इस लक्षण वाला नहीं है, वह अनात्मवान् है। 'स्थानांगसूत्र' में बताया गया है कि आत्मवान के लिए निम्नोक्त छह स्थान हित, शुभ, क्षमता, निःश्रेयस् और आनुगामिकता (शुभानुबन्ध) के लिये होते हैं(१) पर्याय (दीक्षा या अवस्था में बड़ा होना), (२) परिवार, (३) तप, (४) श्रुत, (५) लाभ, और (६) पूजा-सत्कार। अर्थात् आत्मवान् के लिये ये छहों स्थान अप्रमाद-साधना पुष्ट होने से आत्म-विकास के, क्षमता-सहिष्णुता वृद्धि के, गम्भीरता और नम्रता के कारण बनते हैं। जबकि अनात्मवान् के लिये ये छहों स्थान अहंता-ममता, अहंकार, मद् तथा भावनिद्रा के कारण बनते हैं। इसलिए जो आत्मवान् होता है, वही अप्रमाद-संवर का परिपक्व साधक होता है। प्रमाद-निरोध का एक प्रेक्टिकल पाठ __ प्रश्न होता है-मद आदि पाँच प्रभावों का आक्रमण रोकने के लिये यानी प्रमाद से बचने के लिये, प्रति क्षण जागरूक रहने के लिए क्या करना चाहिए? इसके लिए एक रूपक बहुत ही उपयोगी होगा। संक्षेप में, वह इस प्रकार है-एक सम्राट १. (क) एगओ विरई कुज्जा, एगओ य पवत्तणं। असंजमे नियत्तिं च, संजमे य पवत्तणं॥
-उत्तराध्ययन, अ. ३१, गा. २ (ख) Empty mind is devil's workshop.
-एक प्रोवर्ब २. (क) छट्ठाणा अत्तवतो हियाए सुभाए खमाए णीसेसाए आणुगामियत्ताए भवति, तं.-परियाए,
परियाले, सुते, तवे, लाभे पूयासक्कारे। (ख) छट्ठाणा अणत्तवओ अहिताए असुभाए अखमाए, अणीसेसाए अणाणुगामियत्ताए भवति, तं जहा-परियारे, परियाले, सुते, तवे लाभे, पूयासक्कारे।
-स्थानांग, स्था. ६, सू. ३३३२, विवेचन (आ. प्र. स., ब्यावर), पृ. ५४२
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