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* अप्रमाद-संवर का सक्रिय आधार और आचार ॐ १९ *
अप्रमाद-संवर के साधक की भावचर्या और
द्रव्यचर्या कैसी हो? कर्ममुक्ति का अभिलाषी साधक किस दृष्टि, बुद्धि या ध्येय के अनुसार अपनी प्रत्येक चर्या, क्रिया या प्रवृत्ति करे? इसके लिए भगवान महावीर ने कहा"अप्रमाद-संवर का परिपक्व साधक वीतराग प्रज्ञप्त उसी (दर्शन, सिद्धान्त, आदर्श या संयम) को एकमात्र दृष्टि में रखे, उसी द्वारा प्ररूपित विषय-कषायादि से मुक्ति (वीतरागता) में मुक्ति माने, उसी को आगे (दृष्टिपथ में) रखकर विचरण करे, उसी का संज्ञान = स्मरण सभी कार्यों में सतत रखे; उसी के सेवन में तल्लीन (तन्मय) होकर रहे। वह प्रत्येक चर्या में यतनापूर्वक विहार करे, चित्त को गति में एकाग्र करके मार्ग का सतत अवलोकन करते हुए (दृष्टि टिकाकर) चले। जीव-जन्तु आदि को देखकर पैरों को आगे बढ़ने से रोके और मार्ग में आने वाले प्राणियों को देखकर गमन करे।"१ यह निरूपण अप्रमाद-संवर की भावचर्या और द्रव्यचर्या का है। यह सिद्धान्तसूत्र प्रत्येक प्रवृत्ति के लिये है।
___ अप्रमाद का स्वरूप, प्रकार और प्रयोग अप्रमाद का सामान्यतया अर्थ होता है-किसी सत्कार्य में शिथिलता, ढिलाई न करना, प्रत्येक सत्कार्यों को-निरवद्य प्रवृत्ति को उत्साह, आदर और निष्ठा-श्रद्धा के साथ करना। इसलिए इसका विधेयात्मक अर्थ होता है-जागरूकता, सावधानी, आत्म-जागृति, आत्म-स्मृति, यतना-उपयोग सहित व निष्ठा-श्रद्धापूर्वक प्रवृत्ति करना। निषेधात्मक अर्थ यों हो सकता है-किसी भी प्रवृत्ति में असावधानी, अविस्मृति, अनेकाग्रता, अजागृति, अश्रद्धा, अनुत्साह या अनादर, आलस्य, अहंकारादि कषाय, विषयासक्ति का दौर न हो, राग-द्वेष या प्रियता-अप्रियता भी न हो। कई लोग यह कहते हैं कि किसी भी प्रवृत्ति को करने से कर्मबन्ध होता है, तो प्रवृत्ति ही न की जाए, निवृत्ति लेकर बैठ जाएँ। परन्तु उनका यह कथन यथार्थ नहीं है। खाना, पीना, सोना, जागना, उठना, बैठना आदि भी तो प्रवृत्ति है, चुपचाप वह बैट जाएगा, किन्तु उसके मन में विचारों की घुड़दौड़ तो चलेगी ही, उसे कैसे रोकेगा? अतः प्रवृत्ति के बिना अयोगी केवली के सिवाय कोई रह नहीं सकता। तब प्रश्न होगा प्रवृत्ति में क्या सावधानी रखे? इसके लिए यतना के अतिरिक्त 'उत्तराध्ययनसूत्र' के चरणविधि नामक अध्ययन में बताया गया है कि साधक (अप्रमादचारित्र का साधक) एक ओर से विरति (निवृत्ति) करे और दूसरी
१. तद्दिवीए तम्मुत्तीए तप्पुरक्कारे तस्सण्णी तण्णिसेवणे जयं विहारी चित्तणिवाती पंथणिज्झाई पलिबाहिरे पासिय पाणे गच्छेज्जा।
-आचारांग, श्रु. १, अ. ५, उ. ४
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