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• अप्रमाद - संवर का सक्रिय आधार और आचार १७
हो, उन सभी का समावेश मद्य में होता है। दूसरा भाव - मद्य वह है जो जीव में अष्टविध मद में से किसी भी मद अहंकार उत्पन्न करे अथवा ऋद्धि-गौरव (गर्व), रस-गौरव और साता- गौरव ये तीनों अहंकार का नशा चढ़ाते हैं, इसलिए उन्हें भी मद्य समझना चाहिए। आठ प्रकार के मद ये हैं- जातिमद, कुलमद, बलमद, तपमद, लाभमद, श्रुत (ज्ञान) मद, ऐश्वर्य (वैभव तथा प्रभुता; सत्ता या अधिकार का) मद और रूपमद । मानमोहनीय कर्म के उदय से जनित ये आठों ही मद प्रमादवर्द्धक हैं; मनुष्य आत्म-स्वरूप को और आत्मौपम्यभाव को भूल जाता है । विषय से पाँचों इन्द्रियों और मन के मनोज्ञ - अमनोज्ञ विषयों पर राग-द्वेष, प्रियता-अप्रियता का भाव आना प्रमाद है, इनके प्रति राग-द्वेष होने पर मनुष्य शुद्ध आत्मा का ज्ञाता-द्रष्टापन भूल जाता है, आत्म-विस्मृति ही प्रमाद है । कषाय चार हैं और नौ नोकषाय हैं, ये सभी मिलकर तीव्रता - मन्दता की अपेक्षा से २५ हैं, जो चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से उत्पन्न होते हैं । कषायों के कारण निराकुलता - परम शान्तिरूप चारित्र या स्वरूपरमणतारूप निश्चय चारित्र पर आवरण आ जाता है अथवा कषायों के कारण हिंसादि में प्रवृत्त होकर चारित्र की घात कर लेता है, जो आत्म-गुणों की घात है। इसलिए कषाय भी मनुष्य को प्रमत्त बना देता है । निद्रा अप्रमाद (जागरूकता) में बाधक है। यह एक प्रकार की मूर्च्छा है। जिसको नींद ज़्यादा सताती है, वह आत्म-चिन्तन, परमात्म- नामस्मरण, गुणस्तुति या भजन करने एवं स्वाध्यायादि द्वारा आत्म- जागृति में बाधक है। यह ठीक है - दर्शनावरणीय कर्म के उदय से नींद आती है, स्वास्थ्य के लिए उचित निद्रा लेना आवश्यक है, किन्तु निद्रा को ही बहुमान या अत्यधिक महत्त्व देना ठीक नहीं । निद्रा' दो प्रकार की हैद्रव्यनिद्रा और भावनिद्रा । भावनिद्रा में अज्ञान, संशय, मिथ्याज्ञान, राग, द्वेष, स्मृतिभ्रंश, धर्माचरण में अनादर और योग - दुष्प्रणिधान, इन आठों प्रमादोत्पादक तत्त्वों का समावेश हो जाता है । २ नींद न ले वह जागरूक और नींद ले वह सुप्त, यह जागरूक की अंधूरी परिभाषा है । कतिपय महान् आत्माएँ ऐसी भी होती हैं, जो नींद लेने पर भी जाग्रत रहती हैं, इसके विपरीत कई अज्ञ जीव जागते हुए भी सोये रहते हैं, भावनिद्रा में डूबे रहते हैं । 'आचारांग' में बताया गया है ३ - " सुत्ता अमुणी, मुणिणो सया जागरंति । ” अप्रमत्त ज्ञानी मनस्वी साधक सदा जाग्रत रहते हैं, जबकि अज्ञानी और प्रमादी जीव सोये रहते हैं। ज्ञानी अप्रमत्त आत्मा जो कुछ
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१. निद्दं च न बहु मन्निज्जा ।
मिहो कहाहिं न रमे, सज्झायम्मि रओ सया । २. देखें - प्रवचनसारोद्धार में प्रमाद के आठ अंग
३. आचारांग, श्रु. १, अ. २, उ. ६
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- दशवैकालिक, अ. ८, गा. ४२
-वही ८/४२
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