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ॐ १६ ® कर्मविज्ञान : भाग ७ ®
ऐसा प्रमादाचारी साधक बार-बार जन्म-मरण करता है __ “ऐसा साधक जो इन्द्रियों और मन के विषयों का प्रमादपूर्वक बार-बार आस्वाद करता है, वह वक्र आचार (कपटाचार या असंयमयुक्त प्रमादाचार) वाला है। वह प्रमत्त है, यदि गृहत्यागी है तो भी वस्तुतः वह गृहवासी है।" ऐसे वक्राचारी प्रमादी व्यक्ति के लिए भगवान ने कहा-"जो मायी (कपटाचारी) और प्रमादी है, वह बार-बार गर्भ में आता है-जन्म-मरण करता है।"१ अप्रमाद-संवर-साधक कैसे प्रमाद से बचकर चर्या करे ? .
अतः जिज्ञासु शिष्य द्वारा प्रश्न उपस्थित किया गया कि साधक (गृहस्थ हो या साधु) शरीर और इन्द्रियों से अप्रमत्त रहने और पापकर्म के बन्ध से बचने के लिए चलने, उठने, बैठने, सोने, जागने, खाने-पीने आदि सभी चर्याएँ-प्रवृत्तियाँ कैसे करे? इसका समाधान किया गया-यतना (विवेक एवं सावधानी) से चले, बोले, उठे, खाये-पीए। अर्थात् सभी प्रवृत्तियाँ यतनाचारपूर्वक करे। यतनापूर्वक प्रवृत्ति करने से पापकर्मों का बन्ध नहीं होगा।२ अयतना प्रमाद है, यतना अप्रमाद है। अप्रमाद-संवर के साधक के लिए यतना ही समस्त प्रमादों के निवारण का उपाय है। आठवें अनर्थदण्ड-विरमणव्रत में गृहस्थ श्रावक के लिए प्रमादाचरण का सख्त निषेध किया गया है तथा उसके अन्तर्गत दुर्ध्यान, हिंसाकारी वस्तुओं का प्रदान, पापकर्मोपदेश भी एक प्रकार से निरर्थक प्रमादाचरण है; पापकर्मबन्ध का भी कारण है। प्रमाद का मोर्चा कहाँ-कहाँ और कैसे-कैसे ?
प्रमाद के जैन जगत् प्रसिद्ध पाँच मुख्य मोर्चे हैं, अप्रमाद-संवर के साधक को इन पाँचों के आक्रमण से बचना चाहिए। वे पाँच ये हैं-(१) मद्य, (२) विषय, (३) कषाय, (४) निद्रा, और (५) विकथा।३ जो भी द्रव्य बुद्धि को लुप्त कर देता है, वह चाहे शराब हो, भाँग हो, गाँजा हो, तम्बाकू हो, हेरोइन हो या ब्राउन सुगर
१. (क) पुणो पुणो गुणासाए वंकसमायारे पमत्ते गारमावसे। -आचारांग, श्रु. १, अ. १, उ. ५ (ख) माई पमाई पुणरेइ गब्भ।
-वही, श्रु. १, अ. ३, उ. १ २. कहं चरे कहं चिढे कहमासे कहं सए।
कहं भुंजतो भासंतो पावकम्मं न बंधइ?॥७॥ जयं चरे जयं चिट्टे जयमासे जयं सए।
जयं भुजंतो भासंतो पावकम्मं न बंधइ॥८॥ , -दशवैकालिक, अ. ४, गा. ७-८ ३. मज्जं विसय-कसाया णिद्दा विगहा य पंचमी भणिया। .
इअ पंचविहो एसो होई पमाओ य अप्पमाओ॥ -उत्तराध्ययन नियुक्ति १८०
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