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विरक्त एक अणगार जैनश्रमण WONDERFUL IMAGE है।
(२७) जैनोकी सुखसमृद्धि :- संख्यामें कम किन्तु बुद्धि - ऋद्धि एवं आर्थिकतासे संपन्न जैन समाज अनेक क्षेत्र में आगे-आगे है, इसका मौलिक कारण है वैसा जैन भगवानके सिद्धांत जैसे अहिंसा, सत्य, अचौर्य इत्यादि नियमोका वफादार होता है।
इस प्रकारसे जीवविचार, नवतत्त्व, 12+4-16 भावनाओंकी प्ररूपणाओंके साथ शासन प्रभावना-आराधना और रक्षाका लक्ष्य रखते हुए अनेक उत्तम साधक चतुर्विध श्रीसंघ में पूर्वकालमें हुए थे, आज भी है, भाविमें भी जन्म लेंगे। क्योंकि वसुंधरा बहुरत्ना होती है। श्रावक-श्राविकाएँ स्थूल आराधनाएँ करते है जबकि श्रमण - श्रमणीयाँ सूक्ष्मके साधक होते है।
જિન શાસનનાં
एक संयमी प्रवचन न देता हो, पुस्तके न लिखता हो, शासनप्रभावक कोई भी प्रवृत्तियाँ न करता हो किन्तु सिर्फ आत्मलक्षी तप-त्याग द्वारा कर्मनिर्जरा करते हुए यदि आत्मशुद्धि द्वारा सामान्य अथवा अंतकृत केवली बनता हो तो भी चोराशीलाख जीवायोनिके भवभ्रमणसे छूटकर सिद्धगतिको पाकर आत्मकल्याण कर सकता है, इसलिये शास्त्रोंकी गहनता समझने गीतार्थोकी सेवना-उपासना करनी चाहिये ।
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एस ग्रंथके साथ कुल मिलाकर 27 ग्रंथोमें जो जो साधक आराधक और साधना-आराधनाओंकी बाते प्रस्तुत की है, उसका संपूर्ण सार संक्षेपित भाषामें उपरोक्त 27 PARAGRAPHS में संकलित करते हुए यह छोटी-सी प्रस्तुति विराम ले रही है।
विनीत : ग्रंथ सर्जन सहायक
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