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ઝળહળતાં નક્ષત્રો
जिनपूजा - दर्शनसे वंचितो की बंढती संख्या जिनशासनको नुकशानकर्ता कही जाती है। (१३) तीर्थंकर महावीरकी अंतिम देशना :- जिसमें परमात्माने पाँचवे और छठ्ठे आरेके दूषित भाव ही नहि, किन्तु साथमें संयम तक पहुंच कर भी तिर्यंच या नरकतगिमें जानेवालों की विशाल संख्या बताकर एक महासत्य खोल दिया है।
(१४) श्रुतवैभव : - 14 राजलोकके विस्तृत क्षेत्रकी सभी जानकारियोंको केवली भगवंतोने इतनी सहजता से प्रस्तुत किया है कि आज तक जैनी शास्त्रो जैसा ज्ञान खजाना अन्यधर्मीयोंके पास नहि । दिग्गज कोटिके विद्वान महात्माओंने ज्ञानसंपदाका विकास किया है। (१५) आर्यक्षेत्रकी विशेषताएँ :- सभी तीर्थंकर भगवंतोका जन्म किसी न किसी उत्तम संस्कृतक्षेत्रमें ही होता है। क्षत्रियवंशीय ये भगवंत अपने जीवन दौरान अपने विशिष्ट आचार-विचार-उच्चार संहितासे मोक्षप्राप्तिकी सचोट प्ररूपणा करते है ।
(१६) विविधक्षेत्रीय प्रभाव :- सूक्ष्मकी साधना और ज्ञानधनकी सूक्ष्मताके कारण ही विश्वका कोई विषय ज्ञानियोंकी द्रष्टिसे बाहर नहि रहता। अधर्मियोंकी बहुसंख्या के बीच धर्मीयोंकी रक्षा आचारवंत श्रमणश्रमणीसंघ करता है।
(१७) पुण्योपार्जनके सातक्षेत्र :- जिनबिंब, जिनालय, जिनागम, साधु-साध्वी और श्रावक-श्राविकारूपी सातक्षेत्र ज्ञानियोने दानरुची श्रावकोंको धनका समुचित वपन करने हेतु बताये है। जहाँ दिया दान श्रेष्ठतम लाभ देता है।
(१८) आचार - प्रधान जीवनशैली :- जो संयमी जीव उग्र संयमधारी है, ब्रह्मचर्य समाधि अथवा तप समाधि इत्यादि आराधनाओं से जुड गया है, वैसे सतत पादाचारि आचार- संपन्न एवं शासनप्रभावकोंको धर्मप्रचार हेतु आडंबरोकी आवश्यकता नहि है । स्याद्वाद - अनेकांतवाद :- जैनदर्शन एकांतवादमें नहि मानता है। इसीलिये एक ही विषयके उपर अनेक द्रष्टिसे विचार करके समताकी साधना, मैत्रीभावना और सूक्ष्म अनुप्रेक्षा तक पहुंचनेका अवसर
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जैनशास्त्रोके परिणत ज्ञानियोंके पास रहता है। (२०) अन्यधर्मोका भी उद्गमस्थान :- जिनवाणीकी सत्य प्ररूपणाका एकाद हिस्सा पकडकर उसको प्रधानता देकर विभिन्न मत-मतांतरवाला धर्म उत्पन्न हुए है। जबकि जैनशास्त्र एकांतवाद आसक्ति एवं अनवस्था इत्यादि दोषोंसे मुक्त है।
(२१) मंत्र - गर्भित अनुष्ठान विधान :- प्रभु पूजाविधि,
तप त्याग, व्रतनियम, सामायिक, प्रतिक्रमण - पौषध इत्यादिक उत्तमोत्तम क्रियाविधियोंकी संयोजना जिनशासनमें ही देखी जाती है वह संप्रदाय ही श्रेष्ठ बनता है, जो श्रेष्ठ क्रियाविधानोंका आदर एवं अनुसरण करे।
(२२) समकिती देवोका सानिध्य :- चक्केश्वरी,
धरणेन्द्र - पद्मावती, माणिभद्रवीर, विमलेश्वर-यक्ष, क्षेत्र देवता, गोत्र देवता, श्रुतदेवता इत्यादि धर्मसहायक देवीदेवताओंका आदर जैनशासन करता है, किन्तु देवाधिदेव है वीतराग भगवान ।
(२३) संयम-साधना :- 23 प्रकारके पौद्गलिक प्रपंचो को
जानकर - समझकर वैरागी बनी आत्मा संयमी बनकर रंग-राग-विलास प्रचुर सांसारिक मायाजालसे विमुख रहकर दस यतिधर्मकी सूक्ष्म आराधना कर सके ऐसी व्यवस्था जिनधर्ममें ही है।
(२४) शासनकी प्रभावना :- शासन प्रभावक बनना बहुत ही सरल है, किन्तु जिन शासनके सफल आराधक बनकर आत्मशुद्धिसे लेकर मुक्ति तक पहुंचना दुष्कर साधना है। शासनके बिना मोक्षपुरूषार्थ दुर्लभ है, जो अंतिम सत्य है ।
(२५) मैत्री भावना :- स्वयं के लिये कठोर किन्तु अन्योके साथ कोमल व्यवहार करनेवाला ही मैत्रीकी स्थापना कर सकता है। अनेक प्रकारके विषम आक्रमणोंके बीच भी जिनशासन अपने उदार विचारोसे जयवंता है। (२६) विश्वकी श्रेष्ठ हस्ति :- वर्तमानके बढते विलासवादके प्रतिपक्षमें सतत विहार, मस्तकका लोच, मानापमान इत्यादि उपसर्ग-परिषह और प्राकृतिक प्रतिकुलताओंको सहर्ष स्वीकार कर संसारसुखसे
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