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जैनविद्या
एवं उपलब्ध सभी ग्रन्थ प्रकाशित हैं । कुछ के तो कई-कई संस्करण तथा कई देशी-विदेशी भाषाओं में अनुवादादि भी प्रकाशित हो चुके हैं । समयसार के सैकड़ों संस्करण एवं अनुवादादि हैं।
अनेक पुरातन ग्रन्थकारों ने प्राचार्य का अत्यन्त पूज्यभाव से स्मरण किया है36 और यह उक्ति प्रचलित हो गई कि “हुए हैं, न हैं, न होहिंगे मुनिंद कुन्दकुन्द से।"
1. सोर्सेज अॉफ दी हिस्टरी ऑफ एन्शेन्ट इण्डिया, डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन, दिल्ली,
1964 ई., पृ. 120-126 । 2. प्रत्येक मांगलिक अवसर पर पढ़ा जानेवाला सर्वाधिक प्रचलित मंगल श्लोक
मंगलम् भगवान वीरो, मंगलम् गौतमो गणी । .
मंगलम् कुन्दकुन्दार्यो, जैन धर्मोस्तु मंगलम् ॥ 3. श्रीमतो वर्धमानस्य वर्धमानस्य शासने ।
श्री कोण्डकुन्दनामाभून्मूलसंघाग्रणीगणी ।। एपी. कर्णा. ii, 69 । 4. एपी. कर्णा. ii नं. 64, 66, 69, 117, 127, 140, 254, 258 ।
वही viii, नं. 35, 36, 37 इत्यादि। 5. वन्द्यो विभु विन करिह कौण्डकुन्दः कुन्दप्रभा-प्रणयि कीति-विभुषिताशः यश्चारु चारणकराम्बुज चंचरीकश्चक्रे श्रुतस्य भरतेप्रयतः प्रतिष्ठाम् ।।
-श्रवणबेलगोल, शि. ले. नं. 54 6. प्रवचनासार, सम्पादक, डॉ. ए. एन. उपाध्ये, बम्बई 1935, प्रस्तावना, पृ. 2 । 7. वही, पृ. 2-4 । 8. ए. गुएरिनाट-रपर्टोइर डी एपीग्रेफी जैना, नं. 585 । किन्तु 'महामति'
उनका नाम या उपनाम नहीं, वरन् एक विशेषण रहा प्रतीत होता है । 9. जैन एन्टीक्वेरी, xii, 2, पृ. 1923 । 10. सद्दवियारो हो, भासा सुत्तेसु जं जिणेकहियं ।
सो तहकहियं णायं सीसेण य भद्दबाहुस्स ।। 11. प्रवचनसार, उपाध्ये, पृ. 6 ।
पंचास्तिकाय, ए. चक्रवर्ती, इलाहाबाद, 1920, प्रस्तावना, पृ. 7 आदि । 12. वही । कुन्दकन्द के टीकाकारों तथा अन्य परवर्ती ग्रन्थकारों एवं शिलालेखों
ने इन चमत्कारों आदि को प्रचारित किया। 13. पंचास्तिकाय की अपनी टीका के पुरोवाक्य में । 14. जैन सिद्धान्त भास्कर, i, 4, पृ. 78 । 15. ए.पी. इण्डिका, परिशिष्ट (लूडर्स) नं. 7 । 16. प्रवचनसार, उपाध्ये, पृ. 16। 17. (i) पुरातन जैन वाक्य सूची, जु. कि. मुख्तार, सरसावा, 1950, प्रस्तावना,
पृ. 191