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जैनविद्या
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2-निश्चय नय से प्रात्मा असंख्यात प्रदेशी होने से (लोक व्यापक होने की शक्ति रखने के कारण) तीन लोक के बराबर है (जैसा कि केवलि-समुद्घात के समय होता है) किंतु व्यवहार नय से प्रत्येक आत्मा अपने-अपने शरीर में व्याप्त होने से अपनी देह के बराबर ही है।
-पंचास्तिकाय 27, द्रव्यसंग्रह 10
3-उपादान कारण की दृष्टि से आत्मा राग-द्वेषादि विकारी भावों का कर्ता और
भोक्ता है क्योंकि रागद्वेषादि भाव अात्मा से सर्वथा भिन्न नहीं हैं जिनके द्वारा वह कर्मों से बंधता भी है किंतु निमित्त-प्रधान कथन करने पर रागादि भाव पुद्गल कर्मोदय के निमित्त से होते हैं अतः इस दृष्टि से पुद्गल कर्मों को रागादि का कर्ता कहा जाता है।
-समयसार 115, प्राचार्य जयसेन की टीका ___4-प्राणों की दृष्टि से कथन करने पर निश्चय नय से प्रात्मा का चैतन्य भाव ही
प्राण है किंतु व्यवहार नय से इन्द्रिय, बल, आयु व श्वासोच्छवास इन द्रव्यप्राणोंवाला जीव कहा जाता है ।
-द्रव्यसंग्रह 3, (नेमिचन्द्राचार्य) 5-निश्चय नय से जीव अमूर्तिक है और व्यवहार से पुद्गलकर्मबंधनबद्ध होने से मूर्तिक है।
-द्रव्यसंग्रह 7, समयसार 4 6-जिनेन्द्र भगवान् ने व्यवहार नय से मिथ्यात्वादि गुणस्थानों में जो मिथ्यात्व
सम्यक्त्वादि भाव होते हैं उन्हें जीव कहा है इसी से यह मिथ्यादृष्टि है, यह सम्यग्दृष्टि है, यह प्रमत्त या अप्रमत्त है, यह केवली या छद्मस्थ है आदि व्यवहार होता है किंतु निश्चय नय से जीवमात्र को चैतन्यमयी, उपयोग-स्वभावी कहा है।
-समयसार, 46
7- व्यवहार नय से जीव के संसारी और मुक्त अथवा स्वसमय और परसमय आदि भेद हैं किंतु शुद्ध निश्चय नय से चैतन्यस्वभावी होने से सब जीव समान हैं।
-समयसार, 3
8- शुद्ध निश्चय नय से अन्य द्रव्य और उसके गुण-पर्यायों से भिन्न (अमिश्रित) होने
तथा अपने स्वाभाविक चैतन्यमयी अमिट-सत्ता से अभिन्न होने के कारण आत्मा द्रव्यदृष्टि से एक स्वतंत्र त्रिकाल शुद्ध द्रव्य है । किंतु व्यवहार नय से जब तक कर्मबंधनबद्ध होकर रागी-द्वेषी विकारी पर्याय में संसारी बना हुआ है तब तक पर्यायदृष्टि से अशुद्ध है और कर्मबंधन से मुक्त सिद्धदशा में शुद्ध कहा गया है।
-समयसार 6, द्रव्यसंग्रह 13