Book Title: Jain Vidya 10 11
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 173
________________ जैनविद्या 159 लोप-(1) परीत्त-संसारिनो जादो (भा. पा. 51) । परिवित्त-चाहिए, व का लोप है। . (2) मइधणुहं जस्स थिरं सदगुण वाणा सुत्थि रयणत्तं । बो. पा. 22 रयणत्तयं के स्थान पर 'रयणत्तं', 'य' का लोप । (3) उदेसियं चरणं । (चा. पा. 44) उवदेसियं के स्थान पर 'उदेसियं', 'व' का लोप । स्वरभक्ति-स्वर-भक्ति का प्रयोग भी बहुत हुआ है । (1) ममत्त-ममत्ति (मा. पा. 57)। (2) दव्वं-दवियं भव्वं+मवियं (भा. पा. 124)। (3) इक्कं- एक्कं इक्कि (मो. पा. 22)। (4) अधा-आधा (मो. पा. 79) प्राधाकम्मम्मिखा । व्याकरणात्मक विश्लेषण इस अध्ययन में ऐसे प्रयोगों को रखा जा रहा है जो प्राकृत-व्याकरण के अतिरिक्त प्रयुक्त हुए हों । अष्टपाहुड ग्रंथ में ऐसे कई प्रयोग हैं जिनका उल्लेख शब्द, क्रिया, कृदंत एवं तद्धित रूप किया जा सकता है । शब्द (1) प्रथमा एकवचन में जहाँ प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय का प्रयोग होता है वहाँ अपभ्र श में प्रथमा/द्वितीया एकवचन में 'उ' प्रत्यय का भी प्रयोग होता है । अष्टपाहुड-ग्रन्थों में 'उ' का प्रयोग(1) भावेह भावसुद्ध फुड (चा. पा. 45) (भा. पा. 31) फुडु→फुड-फुडो । (2) दीवायणु त्ति णामो (भा. पा. 50)। (3) भावहि अणुदिणु अतुलं (भा. पा. 92, 120) । (4) रुमहि मणु जिणमग्गे । (भा. पा. 141)। (5) पावोपहदि भावो सेवदि य अबंभु लिगिरूवेण (लिंग. पा. 7) । (6) पुंस्चलिधरि जसु मुंजइ । (लि. पा. 21)। (2) तृतीया बहुवचन में हि, हि या हिं (भिसो हि हिँ हिं 3/7) प्रत्यय होने पर शब्द के अन्त्य 'अ' को 'ए' (भिसभ्यस्सुपि 3/15) हो जाता है । परन्तु अष्टपाहुड ग्रन्थों में कुछ प्रयोग ऐसे भी हैं जिनमें 'हि' प्रत्यय होने पर शब्द के अन्त्य 'अ' को 'ए' नहीं हुआ है । यथा(i) चउतीसहि अइसएहिं संजुत्तो । (दंसण पाहुड 29) । 'चउतीसहि' में 'अ' का 'ए' नहीं हुआ । यह प्रवृत्ति अपभ्रंश की है।

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