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तद्धित प्रयोग - 'त' एवं ' त्तण' प्रत्ययों का प्रयोग हुआ है
(i) अप्पा झावि लहहि इंदत्तं । मो. पा. 77
(ii) लोयंतिय- देवत्तं तत्थ । मो. पा. 77
(iii) बालत्त - पत्तेण । भा. पा. 41
(iv) णगत्तणं कज्जं । भा. पा. 55
देशीशब्द - साहंति जं महल्ला आयरियं जं महल्ल पुव्वेहिं । चा. पा. 31
ढिल्लं - शिथिल - ढीला
दुरु – दुल्लियो (भ्रमण) । मा. 36
पुंस्चलघरि । (लिं. पा. 21)
जइ-फुल्लं गंधमयं । बो. पा. 14 । इच्छु- फुल्ल -समो (भा.पा. 71 )
पसु - महिल - संढ - संगं ( बो. पा. 56 ) ।
जे झडियकम्मे (मो. पा. 1), झड़ना ।
ते होंति लुल्लमूना ( दं. पा. 12 ) ।
जैन विद्या
कुछ अन्य प्रयोग - ( 1 ) ताम रंग गज्जइ अप्पा विसएसु गरो पवट्टए जाम ( मो. पा.) ।
इसमें जाम एवं ताम अपभ्रंश ही हैं ।
( 2 ) मज्भं ण ग्रहयमेगागी । ( मो. पा. 81 )
हकं हयं मैं ( अपभ्रंश रूप है | )
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( 3 ) हंतुरण दोसकम्मे हुउ । (बो. पा. 29 ) हुउ ( अपभ्रंश रूप है ।) ( 4 ) सह - वियारो हुम्रो । ( बो. पा. 60 )
इस प्रकार के अनुसंधान को प्रस्तुत करके मैं यह सोचता हूँ कि अष्टपाहुड ग्रन्थों का ही नहीं, अपितु कुन्दकुन्दाचार्य के सभी ग्रंथों का भाषात्मक अध्ययन होना आवश्यक है क्योंकि उनके जितने भी ग्रंथ हैं वे सभी पाहुड ही हैं । पर जिन्हें आज विद्वानों ने
गये हैं । इन पाहु ग्रन्थों
अष्टपाहुड की संज्ञा दी है, वे ही पाहुड के रूप में प्रचलित हो की भाषा का मूल्यांकन करने से यह स्पष्ट प्राभास हो जाता है कि जब अपभ्रंश बोलचाल के रूप में प्रयुक्त होती रही होगी तब वह प्राकृत के अधिक नजदीक रही होगी । कुन्दकुन्दाचार्य ने प्राकृत के साथ जो अपभ्रंश शब्दों का प्रयोग किया है उससे यह पता चलता है कि अपभ्रंश काफी प्राचीन भाषा है।