Book Title: Jain Vidya 10 11
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 172
________________ 158 जनविद्या सप्तमी में विभक्ति लोपगिरिगुह गिरि-सिहरे । (बो. पा. 41) परिहर घम्मे अहिंसाए । (चा. पा. 15) दोघं एवं ह्रस्व - (स्यादौ दीर्घ-ह्रस्वौ 4/330) अपभ्रंश भाषा में प्रथमा आदि विभक्तियों के प्रयोग होने पर दीर्घ का ह्रस्व होता है, दीर्घ का दीर्घ भी रहता है, ह्रस्व का दीर्घ भी होता है तथा ह्रस्व का ह्रस्व भी रहता है । प्राकृत भाषा में यह प्रवृत्ति नहीं पाई जाती है । कुन्दकुन्दाचार्य के पंचास्तिकाय, प्रवचनसार, नियमसार, समयसार आदि ग्रन्थों में ऐसी प्रवृत्ति नहीं पाई जाती है । परन्तु कुन्दकुन्दाचार्य के अष्टपाहुड ग्रन्थों में यह प्रवृत्ति अवश्य पाई जाती है। दीर्घ का ह्रस्व-तेसिं वि णत्थि 'बोहि' (दं. पा. 13) मूलतः दीर्घ शब्द है, द्वितीया बहुवचन के 'शस्' का लोप होने पर (3/4) दीर्घ का दीर्घ रहना चाहिए था, परन्तु यहाँ (4/330) दीर्घ का ह्रस्व हो गया। (1) पंच-महव्वयजुत्तो तिहिं गुत्तिहिं (सू. पा. 20) में नियमतः 'हि' (3/7) प्रत्यय ___ लगने पर (3/12) दीर्घ होना चाहिए था, पर ह्रस्व ही रहा । (2) अज्जिय वि एकवत्था में अज्जिया का 'अज्जिय' हुआ । (3) विरो भावरण में भावणा का भावण । (4) ठावरण पंचविहेहिं (बो. पा. 30) ठावण <ठावणा । (5) सम्मत्त सण्णि आहारे । (बो. पा. 32) सण्णि < सण्णी । (6) इरिया-भासा एसरण जा सा (चा. पा. 37) एसण< एसणा । (7) पसु-महिल-संढ-संगं (बो. पा. 56) महिल< महिला । (8) कुरु दय परिहर मुणिवर (भा. पा. 132) दय<दया । (9) सण-णाणावरणं मोहरिणयं (भा. पा. 148) मोहणियं < मोहणीय । (10) मलरहिरो कलचत्तो (मो. पा. 6) कलचत्तो<कलाचत्तो। ह्रस्व का दीर्घ-बंधवाईमित्तेण, मा. पा. 43 । देऊ+देउ, भा. पा. 151। सत्तूमित्ते य समा (बो. पा. 46) सत्तू--सत्तु । प्रागम-इसमें किसी नई ध्वनि स्वर या व्यजन का आना आगम कहलाता है। जो जोडदि विव्वाहं (लि. पा. 9) । 'विवाह' में व का आगम है ।

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