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जैनविद्या
प्रामाणिक आधारों पर इसे प्राचीन माना है। सर्वप्रथम भाषाविदों ने इस विषय में खोज की तो उन्हें अशोक के अभिलेखों से शौरसेनी भाषा सम्बन्धी जानकारी प्राप्त हुई । काठियावाड़ के गिरनार अभिलेख में भी इसके जो रूप देखने को मिले हैं उनसे भी इसकी प्राचीनता का बोध हो जाता है । यहाँ भाषा के विषय में इतना ही कहा जा सकता है कि इस भाषा का प्रयोग सर्व-प्रथम आगम साहित्य के रूप में भी पाया । इस भाषा का यहीं विराम नहीं हो गया, अपितु यह भाषा अबाध गति से चलती रही । संस्कृत नाटकों में तो प्रायः राजा, मंत्री, राज-पुरोहित आदि को छोड़कर शेष सभी रानी, रानी की सहेलियाँ, अन्तःपुर की दास-दासियाँ आदि से शौरसेनी प्राकृत का प्रयोग करवाया गया है, इसका प्रमुख कारण यह था कि संस्कृत की अपेक्षा प्राकृत सरल थी, व्यवहार की भाषा थी, जन-साधारण में प्रचलित थी। प्राकृतों को जन-साधारण अच्छी तरह बोल सकते थे, समझ सकते थे । इसलिए संस्कृत नाटकों में रंग-मंचीय दृष्टि एवं लोक-रुचि को ध्यान में रखकर प्राकृतों का प्रयोग पात्रों से कराया गया ।
शौरसेनी के प्राचीन साहित्य पर जब विचार करते हैं तो शौरसेनी के अति प्राचीन ग्रन्थ षट्खंडागम का विशालकाय रूप सामने आ जाता है। जिसमें सिद्धान्त निरूपण के साथ गणित-ज्योतिष आदि विषयों का ज्ञान होता है । अध्यात्म-चिंतन की धारा के प्रति विचार करने पर हमारी दृष्टि प्राचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों की ओर चली जाती है । प्राचार्य कुन्दकुन्द के सभी ग्रन्थों पर सैद्धांतिक एवं दार्शनिक दृष्टि से तो बहुत कुछ लिखा जा चुका है, पर उनके ग्रन्थों की समीक्षा के साथ भाषात्मक परिचय या अध्ययन अभी तक नहीं हुआ है । अतः उनके ग्रन्थों का भाषात्मक अध्ययन भी आवश्यक हो गया है । यहाँ कुन्दकुन्द के सभी ग्रन्थों की भाषा का अध्ययन प्रस्तुत न कर केवल उनके अष्टपाहुड की भाषा का अध्ययन प्रस्तुत किया जा रहा है ।
प्राचार्य कुन्दकुन्द द्वारा रचित सभी ग्रन्थ शौरसेनी प्राकृत में हैं, पर षट्खंडागम की प्राचीन शौरसेनी से कुछ भिन्नता पंचास्तिकाय, प्रवचनसार, समयसार आदि ग्रन्थों में है। इन ग्रंथों की भाषा से कुछ भिन्नता अष्ट-पाहुड़ ग्रंथों में है । अष्टपाहुड ग्रन्थों में जो प्राकृत है वह अपभ्रंश मिश्रित प्राकृत है। अपभ्रंश भरत मुनि या वैयाकरणों की दृष्टि से उकार-बहुला कही जाती है । अपभ्रंश उकार-बहुल है, यह बात तो स्पष्ट है, पर जब कुन्दकुन्द के अष्टपाहुड ग्रन्थों को देखते हैं तब यह बात भी सामने आती है कि विभक्ति-लोप की परंपरा भी प्राचीन है। कुन्दकुन्द स्वयंभू से पूर्व के कवि हैं । स्वयंभू ज्ञात कवियों में अपभ्रंश भाषा के माध्यम से लिखनेवाले आदि कवि हैं । प्राचार्य कुन्दकुन्द के कई पाहुड ग्रन्थ हैं जिनमें से अष्टपाहुड ग्रन्थों का अध्यात्म विषयनिरूपण की दृष्टि से भी महत्त्व है। यहाँ अष्टपाहुड ग्रन्थों की भाषा का अध्ययन इसलिए प्रस्तुत करना अनिवार्य हो गया कि कुन्दकुन्द के समय में अपभ्रंश बोल-चाल के अतिरिक्त ग्रन्थों की भाषा बन चुकी होगी, तभी तो कुन्दकुन्द के अष्टपाहुड ग्रन्थों में प्राकृत भाषा के साथ अपभ्रंश का प्रयोग किया है जिसको विविध भाषात्मक पक्षों के आधार पर स्पष्ट रूप से जान सकते हैं