Book Title: Jain Vidya 10 11
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 169
________________ अष्टपाहुड का भाषात्मक अध्ययन -डॉ० उदयचंद जैन भाषा-शास्त्र का अध्ययन करने से आर्यभाषा के विकासक्रम में कई महत्त्वपूर्ण भाषाएँ हमारे सामने आती हैं। परन्तु जब हमारी दृष्टि पार्ष-वचन की ओर जाती है तब तीन प्रमुख भाषाएँ अपने वैशिष्ट्य का प्रदर्शन करती हैं-1. पाली, 2. शौरसेनी और 3. अर्धमागधी। ये तीनों ही आर्ष हैं, जिन्हें सर्वप्रथम बुद्ध और महावीर ने अपने धार्मिक विचारों के रूप में स्वीकार किया था। उन्हीं बुद्ध और महावीर के वचनों को भाषा-वैज्ञानिकों एवं व्याकरण-विदों ने आर्ष-वचन कहा तथा जो बाद में क्षेत्रीय आधार • पर पाली, शौरसेनी और अर्धमागधी के रूप को प्राप्त हुए। ये तीनों ही भाषाएँ प्राचीन संस्कृति के दीप-स्तम्भ हैं जिनका प्रकाश अद्यतन भी चारों ओर व्याप्त है। इन भाषाओं की साहित्यिक निधि मानव-मात्र के प्रति ही नहीं, अपितु प्राणिमात्र के प्रति आत्मीयता का सागर लाकर खड़ा कर देती है। जिसकी निधि अनंत हो वह कभी भी क्षय नहीं हो सकती है । वो भी पागम रूप में, मानव-मात्र के कल्याण के रूप में एवं संस्कृति के धरोहर के रूप में है। प्रत्येक भाषा का अपना-अपना महत्त्व होता है। जो अपने महत्त्व के फलस्वरूप भाषा के इतिहास को गति प्रदान करती रहती है। उन्हीं में पार्ष-वचन के रूप में शौरसेनी प्राकृत भाषा है । जिसका प्राचीन समय से लेकर आज भी आधुनिक भाषाओं को महत्त्वपूर्ण योगदान है । इस भाषा का अपना विपुल साहित्य है तथा भाषात्मक दृष्टि से भी इसका महत्त्व है क्योंकि भाषा-वैज्ञानिकों ने प्राकृत भाषाओं का अध्ययन करते हुए विभिन्न

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