Book Title: Jain Vidya 10 11
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 168
________________ 154 जैनविद्या धर्म, सोलहकारण भावनारूप धर्म को धारण करने से तीर्थंकर - पद तथा धन और संसार के भोगों की प्राप्ति होती है। जो परमपद में दीक्षा ले संपूर्ण मोहरहित होकर आत्मस्वरूप में स्थिर हो मोक्ष को प्राप्त करता है वह जिन ही देव है । तीर्थं - जिसके द्वारा संसार सागर से तिरा जावे वह तीर्थ है । सागर, नदी, पर्वत आदि तीर्थ नहीं है क्योंकि ये तो संसार-समुद्र में भ्रमण करानेवाले हैं । सागर, नदी आदि बाह्य मल तो धुल जाता है किंतु अंतर्मल नहीं । जिससे ज्ञानावरणीय कर्ममल दूर हों, अज्ञान, राग, द्वेष आदि कषायें धुलें वह तीर्थ है । अरहंत - सामान्यरूप से केवलज्ञानी को अरहंत कहा जाता है तथा विशेषरूप से घातिया कर्मों का नाशक, अठारह दोषों से महंत है। चौंतीस प्रतिशय, आठ प्रातिहार्य तीर्थंकर को । अनंत चतुष्टय का धारक, चार रहित जिसने केवलज्ञान प्राप्त कर लिया वही एवं अनंत चतुष्टय इन छियालिस गुरणों का धारक अर्हत होता है । प्रव्रज्या - दीक्षा को ही प्रव्रज्या कहते हैं । दीक्षा लिया हुआ मुनि सूने घर में, वृक्ष के मूल कोटर में, उद्यान, वन अथवा वसतिका में निवास करता है । उसे शहरों में निवास करना नहीं कहा है । वह मंदिर, तीर्थस्थान आदि में रह कर आत्मध्यान करे तथा अन्य को दीक्षा आदि देवे । जैनेश्वरी दीक्षा में प्रव्रजित साधु के परिग्रह एवं मोह नहीं होने से समता भाव प्रकट होता है, वह शत्रु मित्र, महल - मसाण, प्रशंसा-निन्दा, लाभअलाभ में एकसा रहता है। जैन मुनि के छोटे-बड़े, धनिक - दीन का कोई विचार नहीं होता, जहाँ शुद्ध प्रहार मिले वहीं ले लेता है । वह विषयों की आशा से रहित, निरारंभी और निष्परिग्रही होता है । उसकी नग्नता बालकवत् निर्विकार होती है, वह अपने शरीर का संस्कार नहीं करता । दीक्षा धारण के पश्चात् उसके पास तिल तुष मात्र भी परिग्रह नहीं रहता, सदा ज्ञान- तप में लीन रहकर विकथाओं से दूर रहता है । वह आत्म-कल्याण में सावधान रहता है, पर से उसको कोई ममत्व नहीं । वह अपनी मर्यादा का पूर्णरूप से पालन करता हुआ स्वाध्याय, तप और संयम में स्थिर रहता है । वास्तव में मुनिव्रत का पालन सिधार पर चलने के समान ही है और यही वास्तविक प्रव्रज्या है । इस तरह हम देखते हैं कि प्राचार्य कुन्दकुन्द ने बोध - पाहुड में मुनियों के शिथिलाचार पर गहरी चोट की है । इससे यह भी चरितार्थ होता है कि शिथिलाचार भ्रष्टाचार की तरह कोई नयी चीज नहीं है । प्राचार्य कुन्दकुन्द के समय में भी मुनियों के प्राचार में शिथिलता अवश्य थी जो कुन्दकुन्द को नहीं सुहाई । कुन्दकुन्द ने उसके खिलाफ आवाज उठाई और समुचित मार्ग प्रशस्त किया। उनका कहना है कि परिग्रही एवं मोहवान मुनि के लिए नरक एवं निगोद का रास्ता खुला है । संपूर्ण बोध पाहुड के उक्त ग्यारह भागों में आचार्यप्रवर ने धर्म एवं दिगम्बर मुनियों के स्वरूप को स्पष्ट किया है ।

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