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जैनविद्या
उपलब्ध है। प्राचार्यों, मुनियों एवं गृहस्थ श्रावकों में स्वाध्यायार्थ प्रिय इस ग्रन्थ की संस्कृत एवं भाषा में अनेक टीकाएँ मिलती हैं जिनमें आत्म-जिज्ञासु एवं दीक्षार्थी साधक के लिए अभीष्ट मार्गदर्शन प्राप्त होता है ।
प्राचार्य कुन्दकुन्द के अन्य ग्रन्थों की अपेक्षा 'प्रवचनसार' की रचना सुव्यवस्थित है, जिसमें विषय-वस्तु का निरूपण क्रमशः प्रवर्तमान होता है। महत्त्व का तथ्य यह है कि इसमें ग्रन्थकार मात्र रचना ही नहीं करता अपितु प्रात्म-ज्ञान-पिपासुत्रों की सहज उत्पन्न होनेवाली जिज्ञासा एवं शंकाओं की पूर्वकल्पना करके यथास्थान उनका समाधान भी करता चलता है । जैनाचार्यों की जनसामान्य के उपयोगार्थ अपने समय की प्रचलित लोकभाषा में ग्रन्थ-रचना की जो परम्परा मिलती है उसका उत्स प्राचार्य कुन्दकुन्द की वाणी में द्रष्टव्य है । यही कारण है कि प्राचार्य कुन्दकुन्द का यह ग्रन्थ आध्यात्मिक दार्शनिक होते हुए भी सहज ही सर्वजनोपयोगी शिक्षा ग्रन्थ बन गया है जो पाठक की रुचि को स्वाध्यायार्थ पुनः पुनः जागृत करता है।
प्रस्तुत लघु पालेख में आचार्य कुन्दकुन्द के 'प्रवचनसार' ग्रन्थ के कतिपय मुख्यमुख्य स्थलों को अभीष्ट ग्राह्य शिक्षा के रूप में विवेचित किया गया है ।
प्रात्मज्ञान के लिए प्रागमज्ञान की आवश्यकता
आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने प्रवचनसार ग्रन्थ में पदे-पदे पागमज्ञान की आवश्यकता प्रतिपादित की है। उनका कथन है कि जब तक पदार्थों का निश्चय न हो कोई पुरुष एकाग्र होकर श्रेयस् की उपलब्धि नहीं कर सकता । एकाग्रता वही प्राप्त कर सकता है जिसे पदार्थों का निश्चय हो गया हो । जो एकाग्र हो वही श्रमण है । पदार्थों का निश्चय
आगम/शास्त्र के स्वाध्याय से होता है। अतएव सर्वप्रथम आगमज्ञान प्राप्त करने का . प्रयत्न करना चाहिये । क्योंकि शास्त्रज्ञानहीन पुरुष पदार्थ का निश्चय नहीं कर सकता। पदार्थ के निश्चय बिना मनुष्य स्व-पर का/आत्मा-अनात्मा का स्वरूप नहीं समझ सकता और जब तक स्व-पर का विवेक या भेद-ज्ञान न हो तब तक कर्मों का नाश संभव नहीं। अतएव इस सबके मूल में आगम ग्रन्थों का स्वाध्याय अत्यन्त आवश्यक है
एयग्गगदो समणो एयग्गं णिच्छिदस्स प्रत्येसु ।
णिच्छित्ती प्रागमवो पागमचेट्ठा तदो जेट्ठा ।। 3.32 ॥ -श्रमण एकाग्रवान होता है, एकाग्रता पदार्थों में निश्चय से होती है । पदार्थों का निश्चय आगम से होता है । अतः आगम-चेष्टा ही श्रेष्ठ है।
प्रागमहीणो समणो णेवप्पारणं परं वियाणादि ।
प्रविजाणतो प्रत्थे खवेदि कम्माणि किध मिक्खू ॥ 3.33 ॥ -आगम-ज्ञान-हीन श्रमण न तो अपना ही स्वरूप जानता है और न पर का ही। जिसे स्व-पर का भेद-ज्ञान नहीं, वह कर्मों का क्षय कैसे कर सकता है ?