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जनविद्या
-जो पांच समितियों, तीन गुप्तियों से सुरक्षित है, जिसकी पंचेन्द्रियाँ नियंत्रित हैं, जिसने कषायों को जीत लिया है, जो दर्शन (श्रद्धा), ज्ञान से सम्पन्न है वह संयमी श्रमण कहा जाता है।
समसत्तुबंधुवग्गो समसुहदुक्खोपसंसरिणदसमो।
समलोठ्ठकंचणो पुरण जीविदमरणे समो समणो ॥ 3.41 ॥ -सच्चा श्रमण शत्रु-मित्र, सुख-दुःख, निन्दा-प्रशंसा, मिट्टी-कंचन और जीवन-मरण में समबुद्धिवाला होता है।
दसणणाणचरित्तेसु तीसु जगवं समुट्ठिदो जो दु।
एयग्गगदोत्ति मदो सामण्णं तस्स परिपुण्णं । 3.42 ॥ -दर्शन, ज्ञान और चारित्र में जो एक साथ प्रयत्नशील है और एकाग्रतायुक्त है उसकी श्रमणता ही परिपूर्ण है।
आचार्य कुन्दकुन्द बन्धन और मोक्ष के विषय में कहते हैं जो परपदार्थों से मोह, राग या द्वेष करता है वह विविध कर्मों का बन्धन करता है ।
प्रत्येसु जो ण मुज्झदि ण हि रज्जदि व दोसमुपयादि ।
समणो जदि सो णियदं खवेदि कम्माणि विविधाणि ॥ 3.44 ॥ -परपदार्थों में जो न मोह करता है, न राग करता है और न द्वेष करता हैवह श्रमण निश्चय ही विविध कर्मों का क्षय करता है ।
बालो वा बुड्ढो वा समभिहदो वा पुणो गिलाणो वा ।
चरियं चरउ सजोगं मूलच्छेदं नधा " हवदि ॥ 3.30 ॥ -बालक हो, वृद्ध हो, थका हो या रोगग्रस्त हो तो भी श्रमण अपनी शक्ति के अनुरूप ऐसा आचरण करे जिससे मूल संयम का छेद न हो।
पाहारे च विहारे देसं कालं समं खमं उधि ।
जाणित्ता ते समणो वट्टदि जदि अप्पलेवी सो ॥ 3.31 ॥ -आहार और विहार के विषय में श्रमण यदि देश, काल, श्रम, शक्ति और अवस्था का विचार करके आचरण करे तो उसे कम-से-कम बन्धन होता है । अहिंसा
___अहिंसा के विषय में प्राचार्य कुन्दकुन्द की दृष्टि बड़ी सूक्ष्म है । सोने-बैठने और चलने-फिरने आदि में मुनि की जो सावधानता रहित प्रवृत्ति है वही हिंसा है। क्योंकि