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जनविद्या
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मागमचक्खू साहू. इंदियचक्खूरिण सव्वभूदाणि ।
देवा य मोहिचक्खू सिद्धा पुरण सव्वदो चक्खू ॥ 3.34 ॥ -आगम साधु श्रमणों के चक्षु (नेत्र) हैं। सामान्य जीवधारियों की तो इन्द्रियाँ चक्षु होती है । देवों के अवधिज्ञान चक्षु है और सिद्धों को सर्वतः चक्षु है क्योंकि सिद्ध सर्वज्ञ हैं उनके लिए सब पदार्थ हस्तामलकवत् हैं ।
सव्वे प्रागमसिद्धा प्रत्था गुणपज्जएहि चित्तेहिं ।
जाणंति प्रागमेण हि पेच्छित्ता तेवि ते समणा ।। 3.35 ॥ -समस्त पदार्थों का गुण-पर्याय-सहित ज्ञान प्रागम में है । श्रमण मागम से ही उन्हें देख एवं जान सकता है।
श्रद्धा
स्वाध्याय से उत्पन्न ज्ञान से पदार्थ का निश्चय होने पर श्रद्धा का होना आवश्यक है । आगम पढ़ने पर भी यदि तत्त्वार्थ में श्रद्धा न हो तो मुक्ति नहीं मिल सकती । साथ ही श्रद्धा के साथ यदि तदनुकूल संयमाचरण नहीं हो तो भी निर्वाण की प्राप्ति नहीं हो सकती । प्राचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं
मागमपुवा बिट्ठी रण भवदि जस्सेह संजमो तस्स ।
पत्थित्ति भणड सुत्तं प्रसंजदो हववि किध समणो ॥ 3.36॥ -आगमपूर्वक जिसकी दृष्टि/श्रद्धा नहीं होती है उसके लिए संयमाचरण सम्भव नहीं है और असंयमी श्रमण कैसे हो सकता है ?
ण हि प्रागमेण सिम्झदि सद्दहणं जवि ण प्रत्थि प्रत्येसु ।
सद्दहमाणो प्रत्थे प्रसंजदो वा ण णिग्यादि ।। 3.37 ॥ -यदि तत्त्वार्थ में श्रद्धा नहीं तो पागमज्ञानमात्र से सिद्धि सम्भव नहीं और मात्र श्रद्धा से असंयमी को निर्वाण नहीं मिल सकता।
परमाणुपमारणं वा मुच्छा बेहादियेसु जस्स पुरषो।
विज्जवि जदि सो सिद्धि ण लहदि सव्वागमधरोवि ॥ 3.39 ॥ -जिसे देहादि में अणुमात्र भी आसक्ति है वह समस्त आगमों का पारगामी होने पर भी सिद्धि-लाम नहीं कर सकता । सच्चे श्रमण की व्याख्या में प्राचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं
पंचसमिदो तिगुत्तो पंचेंदियसंवडो जिदकसानो। दसणणाणसमग्गो समणो सो संजदो भरिणदो ।। 3.40 ॥