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विनय
जैनविद्या
विनय के प्रसंग में प्राचार्य कुन्दकुन्द का कथन है कि शास्त्र ज्ञान में निपुण संयम, तप और ज्ञान से परिपूर्ण श्रमणों का दूसरे श्रमण खड़े होकर आदर करें, उनकी उपासना करें और नमन करें । अन्यथा चारित्र नष्ट होता है । अपने से अधिक गुणवान से विनय की आकांक्षा रखना अनन्त संसार का कारण है ।
वही पुरुष मोक्षरूप सुमार्ग का भागी हो सकता है जो पापकर्मों में उपरत हो गया है, सब धर्मों 'समभाव रखता है और जो गुरण समूह का सेवन करता है । अशुद्ध भावों से हट कर शुद्ध या शुभ भाव में प्रवृत्त पुरुष लोक को तार सकते हैं, उनकी सेवा करनेवाला अवश्य ही उत्तम स्थान का भागी है ( 3.60) 1
सुद्धस्स य सामण्णं भणियं सुद्धस्स दंसणं जाणं । सुद्धस्स य णिव्वाणं सोच्चिय सिद्धो णमो तस्स ।। 3.74 ॥
ये हैं प्रवचनसार ग्रन्थ की उपयोगी शिक्षाएँ ।