Book Title: Jain Vidya 10 11
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 159
________________ प्रवचनसार का सार -डॉ. प्रेमचन्द रावका श्रमणधारा के तत्त्व-चिन्तन के इतिहास में भगवान् महावीर और गौतम गणधर के पश्चात् प्रातःवन्दनीय कलिकालसर्वज्ञ श्री पद्मनन्दि कुन्दकुन्दाचार्य भास्कर सदृश भासमान हैं जिन्होंने विक्रम की प्रथम शती में प्राकृत वाणी में यह सिद्ध किया कि कोई भी मानव परमतत्त्व को अपनी स्वानुभूति द्वारा प्राप्त कर सकता है। प्राचार्यों की परम्परा में अध्यात्म-ग्रन्थों के निर्माण का प्राचार्य कुन्दकुन्द को महान् श्रेय प्राप्त है । उनका यह शाश्वत उद्घोष है कि आत्मज्ञान से ही स्वानुभव हो सकता है । दिगम्बर साधु अपने-आपको कुन्दकुन्दाचार्य की परम्परा का मानने में गर्व अनुभव करते हैं । परवर्ती ग्रन्थकारों एवं टीकाकारों के लिए कुन्दकुन्द प्रेरणास्रोत रहे हैं । आचार्य कुन्दकुन्द के पंचास्तिकाय संग्रह, प्रवचनसार, समयसार, नियमसार, बारह अणुपेक्खा, अष्टपाहड़, दशभक्ति, रयणसार आदि चौरासी पाहुडों में से प्रथम पांच ग्रन्थ सर्वप्रसिद्ध हैं। इनमें प्रथम तीन नाटकत्रय या प्राभृतत्रय कहलाते हैं। दिगम्बर परम्परा में इन तीन ग्रन्थों का वही स्थान है जो वेदान्तियों के प्रस्थानत्रय-उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र और गीता का उनकी परम्परा में है । ये तीनों ग्रन्थ दर्शन, ज्ञान और चारित्र की रत्नत्रयी हैं। 'प्रवचनसार' प्राचार्य कुन्दकुन्द का ज्ञान-चारित्र-प्रधान आध्यात्मिक ग्रन्थ है जो श्रावक और श्रमण दोनों के हेतु अपरिहार्य है । इस ग्रन्थ की प्राकृतभाषा में निबद्ध 275 गाथाओं में ज्ञान-ज्ञेय की स्वतंत्रता एवं मुमुक्षु मुनियों के चारित्र्य का सांगोपांग वर्णन

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