Book Title: Jain Vidya 10 11
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 157
________________ जैन विद्या 143 1. तिमिर =अन्धापन (आप्टे : संस्कृत-हिन्दी कोष) । 2. वर्तमान का प्रयोग भविष्यत् अर्थ में हुआ है । एवं (अ) = इस प्रकार से विदिदत्थो [(विदिद) + (अत्थो)] [(विदिद) भूकृ अनि-(अत्थ) 1/1] जो (ज) 1/1 सवि दव्वेसु (दव्व) 7/2 ण (प्र) =नहीं रागमेदि [(राग) + (एदि)] रागं (राग) 2/1 एदि (ए). व 3/1 सक दोसं (दोस) 2/1 वा (अ) =और उवमोगविसुद्धो [(उवयोग)-(विसुद्ध) भूकृ 1/1 अनि] सो (त) 1/1 सवि खवेदि (खव) व 3/1 सक देहुम्भवं [(देह) + (उब्भवं)] [(देह)-(उब्मव)1 2/1 वि] दुक्खं (दुक्ख) 2/11 1. प्रायः समास के अन्त में 'से उत्पन्न' अर्थ को प्रकट करता है। जीवो (जीव) 1/1 ववगदमोहो [(ववगद) भूकृ अनि-(मोह) 1/1] उवलद्धो (उवलद्ध) भूक 1/1 अनि तच्चमप्पणो [(तच्चं) + (अप्परणो)] तच्चं (तच्च) 2/1 अप्पणो (अप्पण) 6/1 सम्म (अ)=पूर्णतः जहदि (जह) व 3/1 सक जदि (अ) = यदि रागदोसे [(राग)-(दोस)2/2] सो (त) 1/1 सवि अप्पाणं (अप्पाण) 2/1 लहदि (लह) व 3/1 सक सुद्धं (सुद्ध) भूक 2/1 अनि ।

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