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जैनविद्या
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सो (त) 1/1 सवि जाणदि (जाण) व 3/1 सक सव्वं (सव्व) 2/1 सवि णिरवसेसं (क्रिविन)=पूर्ण रूप से।
परिणमदि (परिणम) व 3/1 अक णेयमढें [(णेयं)+ (अट्ठ)] गेयं (णेय) विधिकृ 1/1 अनि अट्ठ (अट्ठ) 2/1 णादा (णाउ) 1/1 वि जदि (अ)=यदि णेव (अ)=कभी नहीं खाइगं (खाइग) 1/1 वि तस्स (त) 6/1 स गाणं (णाण) 1/1 ति (अ)=इसलिए तं (त) 2/1 वि जिणिदा (जिरिंणद) 1/2 खवयंत (खवयंत) वकृ 2/1 अनि कम्ममेवुत्ता [ (कम्म) + (एव) + (उत्ता)] कम्मं (कम्म) 2/1 एव (अ)= ही उत्ता (उत्त) भूकृ 1/2 अनि । 1. कभी कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया का प्रयोग पाया जाता है
हेम प्राकृत व्याकरण, 3-137) ।
2.
क्षप् (अय)-क्षपय (वकृ)+क्षपयत् → क्षपयन्तं (211)+खवयंत (2/1 अनि)
नोट : इस गाथा का अर्थ पारंपरिक अर्थ से भिन्न किया गया है, विद्वान विचार करें। . व्याकरण से यही अर्थ ठीक बैठता है।
ठाणणिसेज्जविहारा [(ठाण)-(णिसेज्ज) 1-(विहार) 1/2] धम्मवदेसो [(धम्म) + (उवदेसो)][(धम्म)-(उवदेस) 1/1] य (अ) = और णियदयो' (णियद) पंचमी अर्थक 'यो' प्रत्यय (अव्यय का कार्य कर रहा है) तेसि (त) 6/2 स परहंताणं
(अरहंत) 6/2 काले (काल) 7/1 मायाचारो [(माया)-(चार) 1/1] व्व (अ)= जैसे कि इत्थीणं (इत्थि) 6/2 ।
1.
समासगत शब्दों में रहे हुए स्वर परस्पर में हस्व के स्थान पर दीर्घ और दीर्घ के स्थान पर हस्व हो जाया करते हैं रिगसेज्जा- णिसेज्ज
(हेम प्राकृत-व्याकरण, 1-4)।
2. णियदग्रो (अ)=अवश्य, निश्चित रूप से
3. कभी कभी सप्तमी के स्थान पर षष्ठी का प्रयोग पाया जाता है
(हेम प्राकृत व्याकरण, 3-134)। प्रत्थि (अ) =है प्रमुत्तं (अमुत्त) 1/1 वि मुत्तं (मुत्त) 1/1 वि अदिदियं (अदिदिय) 1/1 वि इंदियं (इंदिय) 1/1 वि च (अ)=तथा प्रत्येसु (अत्थ) 7/2 गाणं (णाण) 1/1 च (अ) =और तहा (प्र) =इसी तरह सोक्खं (सोक्ख) 1/l जं (ज) 1/1 सवि तेसु (त) 7/2 स परं (पर) 1/1 वि च (अ) =इसलिए तं (त) 1/1 सवि णेयं (णेय) विधिक 1/1 अनि ।