Book Title: Jain Vidya 10 11
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 158
________________ सो झायइ अप्पयं सुद्ध जो इच्छइ रिगस्सरितुं संसारमहण्णवाउ रुद्दाप्रो । कम्मिधरणारण डहरणं सो झायइ अप्पयं सुकं ॥26॥ मो. पा. -जो भीषण संसाररूपी महासागर से (बाहर) निकलने की चाह रखता है वह कर्मरूपी इंधन को जलानेवाली शुद्ध आत्मा का ध्यान करता है । . सम्वे कसाय मोत्तुं गारवमयरायदोसवामोहं । लोयववहारविरदो अप्पा झायइ झाणत्थो ॥27॥ मो. पा. -ध्यान में स्थित व्यक्ति लोक-व्यवहार से विमुख (तथा) लालसा, अहंकार, रागद्वेष, व्याकुलता और सभी कषायों को छोड़कर आत्मा को ध्याता है । जह दीवो गम्भहरे मारुयबाहाविवज्जिओ जलइ । तह रायानिलरहिओ झारणपईवो वि पज्जलइ ॥ 122 ॥ भा. पा. -जिस प्रकार घर के भीतर के कमरे में (गर्भगृह में) हवा की बाधा से रहित दीपक जलता है, उसी प्रकार रागरूपी हवा से रहित ध्यानरूपी दीपक भी जलता है ।

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