Book Title: Jain Vidya 10 11
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 151
________________ जैनविद्या 137 जेसि विसयेसु रदी तेसिं दुक्खं वियाण सम्भावं । जइ तं ण हि सन्मावं वावारो पत्थि विसयत्थं ॥ 64 ॥ -जिन (व्यक्तियों) के (जीवन में) (इन्द्रिय)-विषयों में रस है, उनके (जीवन में) दुःख (मानसिक तनाव) (एक) वास्तविकता (है)। (इस बात को) (तुम) समझो, क्योंकि यदि वह (दुःख) वास्तविकता न (होता), (तो) (इन्द्रिय)-विषयों के लिए प्रवृत्ति (बार-बार) न (होती)। तिमिरहरा जइ दिट्ठी जणस्स दीवेण णत्थि कायव्वं । तह सोक्खं सयमादा विसया किं तत्थ कुव्वंति ॥ 67 ॥ -यदि मनुष्य की आँख (स्वयं) (वस्तुओं के प्रति) अन्धेपन को हटानेवाली (है), (तो) दीपक के द्वारा (कुछ भी) किए जाने योग्य नहीं (रहता है)। उसी प्रकार (जब) स्वयं प्रात्मा ही सुख (है). (तो) वहाँ पर (इन्द्रियों के) विषय क्या प्रयोजन (सिद्ध) • करेंगे? एवं विदिदत्थो जो दब्वेसु रण रागमेदि दोसं वा । उवमोगविसुद्धो सो खवेदि देहुम्भवं दुक्खं ॥ 78 ॥ -इस प्रकार (जिसके द्वारा) वस्तुस्थिति (पुण्य-पाप में मानसिक तनावात्मक समानता) जानी गई (है), (और जिसके फलस्वरूप) जो वस्तुओं के प्रति राग-द्वेष (प्रासक्ति) नहीं करता है, वह उपयोग (चैतन्य) से शुद्ध (रहता है) (तथा) देह से उत्पन्न दुःख को समाप्त कर देता है। जीवो ववगदमोहो उवलद्धो तच्चमप्पणो सम्म । जहदि जदि रागदोसे सो अप्पाणं लहदि सुद्धं ॥ 81॥ '-(जिस व्यक्ति के द्वारा) मोह (आध्यात्मिक विस्मरण) समाप्त किया गया (है), (उस) व्यक्ति ने पूर्णतः आत्मा के सार को प्राप्त किया (है)। यदि वह राग-द्वेष (आसक्ति) को छोड़ देता है, (तो) (वह) अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर लेगा। 1. प्रवचनसार, सम्पादक-डॉ० ए. एन. उपाध्ये, प्र०-श्रीमद् राजचन्द्र जैन शास्त्रमाला, 19641

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