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जैनविद्या
उवोगविसुद्धो जो विगदावरणंतराय मोहरश्रो । भूदो सयमेवादा जादि परं जेयभूदाणं ॥ 15 ॥
- जो श्रात्मा (व्यक्ति) उपयोग (क्रिया) में शुद्ध ( उसके द्वारा ) ( ज्ञान पर ) प्रावरण, ( शक्ति प्रकट होने में ) ( आध्यात्मिक विस्मरण एवं प्रासक्तिरूपी ) धूल नष्ट कर दी गई ( है ) | ( मतः ) ( वह )
( आत्मा ) स्वयं ही ज्ञेय पदार्थों को पूर्णरूप से जान लेता है ।
(समतारूप ) ( हुआ है ), बाधा (तथा) मोहरूपी
तह सो लद्धसहावो सव्वण्हू सव्वलोगपदिमहिदो ।
भूदो सयमेवादा हवदि सयंभु त्तिणिद्दिट्ठो ॥16 ॥
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- तथा वह आत्मा (व्यक्ति) ( जिसके द्वारा ) स्वयं ही स्वभाव अनुभव कर लिया गया ( है ), ( जो ) ( स्वयं ) ( ही ) सर्वज्ञ हुआ ( है ) ( जो ) लोकाधिपति इन्द्र द्वारा पूजा गया ( है ), ( वह ) ( वास्तव में ) स्वयंभू ( स्वयं ही उच्चतम अवस्था पर पहुँचा हुआ ) होता है । इस प्रकार (अर्हन्तों द्वारा ) कहा गया ( है ) ।
सोक्खं वा पुण दुक्खं केवलणारिणस्स णत्थि देहगदं ।
जम्हा श्रदिदियत्तं जादं तम्हा दु तं णेयं ॥ 20 ॥
- चूंकि केवलज्ञानी ( शुद्धोपयोगी ) के प्रतिन्द्रियता उत्पन्न हुई ( है ), इसलिए ही ( उसके जीवन में ) शरीर के द्वारा प्राप्त सुख अथवा दुःख ( विद्यमान ) नहीं ( होता है ) । वह (यह ) ( बात ) ( वास्तव में) समझने योग्य ( है ) ।
णत्थि पक्वं किंचि वि समंत सव्वक्खगुण समिद्धस्स । अक्खातीदस्स सदा सयमेव हि णाणजादस्स ॥ 22 ॥
- निस्संदेह स्वयं ही (केवल / दिव्य ) ज्ञान को प्राप्त (व्यक्ति) के लिए, सदा इन्द्रियों ( की अधीनता) से परे पहुँचे हुए ज्ञान के लिए, सब ओर से सब इन्द्रियों के गुणों से (एक साथ) संपन्न (व्यक्ति) के लिए कुछ भी परोक्ष नहीं है ।
हदि जेवण मुंचदि ण परं परिणमदि केवली भगवं । पेच्छदि समंतदो सो जाणदि सम्बं णिरवसेसं ॥। 32
- केवली भगवान् पर ( वस्तु) को न ग्रहण करते हैं (और) न ही छोड़ते हैं । वे सब ओर से (तथा) पूर्णरूप से सबको जानते हैं । ( किन्तु ) ( इस कारण से ) (स्वयं) रूपान्तरित नहीं होते हैं ।
परिणमदि णेयमट्ठे णादा जदि णेव खाइगं तस्स ।
गाणं ति तं जिणिदा खवयंतं कम्ममेवृत्ता ॥ 42 ॥
- यदि ज्ञाता ज्ञेय ( जानने योग्य पदार्थ) में कभी रूपान्तरित नहीं होता है, (तो)