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जैनविद्या
उसका ज्ञान कर्मों के क्षय से उत्पन्न (समझा जाना चाहिए)। इसलिए जिनेन्द्रों ने उसे ही कर्मों को क्षय करता हुआ (व्यक्ति) कहा (है)।
ठाणणिसेज्जविहारा धम्मुवदेसो य णियदयो तेसि ।
परहंताणं काले मायाचारो व्व इत्यीणं ॥ 44 ॥
-उन अरहंतों के (उस) समय (अरहंत अवस्था) में खड़े रहना, बैठना, गमन करना तथा धर्म (अध्यात्म) का उपदेश देना-(ये सब क्रियाएँ) (लोक कल्याण के लिए) निश्चित रूप से (होती हैं), जैसे कि स्त्रियों में (बालक के कल्याण के लिए) माताओं का आचरण (होता है) ।
अस्थि प्रमुत्तं मुत्तं अदिदियं इंदियं च प्रत्येसु । णाणं च तहा सोक्खं जं तेसु परं च तं णेयं ।। 53॥
-पदार्थों के विषय में अतीन्द्रिय ज्ञान मूर्छारहित (होता है) तथा इन्द्रिय-ज्ञान मूर्छायुक्त (होता है) और इसी तरह (अतीन्द्रिय-इन्द्रिय) सुख (भी) (मूर्छारहित तथा मूर्छायुक्त) (होता है) । इसलिए उनमें जो श्रेष्ठ (है), वह समझा जाना चाहिए ।
जादं सयं समत्तं णाणमणंतत्थवित्थडं विमलं ।
रहियं तु प्रोग्गहादिहिं सुहं ति एगतियं भणियं ॥ 59 ॥ -जो ज्ञान अपने आप उत्पन्न (है), पूर्ण (है), शुद्ध (है), अनन्त पदार्थों में फैला हुआ (है) और अवग्रहादि (की सीमाओं) से रहित (है), (वह) अद्वितीय सुख कहा गया (है)।
जं केवलं ति णाणं तं सोक्खं परिणमं च सो चेव ।
खेदो तस्स ण मणिदो जम्हा घादी खयं जादा ॥ 60 ॥
-जो केवलज्ञान (है), वह सुख (है)। (और) निश्चय ही (केवलज्ञान के रूप में) वह रूपान्तरण (सुख) ही (है) । उसके (केवलज्ञानी के/शुद्धोपयोगी के) (जीवन में) खेद (मानसिक तनाव) नहीं कहा गया (है), चूंकि (उसके) घातिया (मानसिक तनाव उत्पन्न करनेवाले) कर्म क्षय को प्राप्त हुए हैं)।
गो सद्दहंति सोक्खं सुहेसु परमं ति विगदघादीणं ।
सुरिणदूण ते अमव्वा भव्वा वा तं पडिच्छंति ॥ 62 ॥ -घातिया (मानसिक तनाव को उत्पन्न करनेवाले) कर्मों को नष्ट करनेवाले (व्यक्तियों) का सुख (सब) सुखों में उत्कृष्ट (होता है)। इस प्रकार जानकर (जो) (उस पर) श्रद्धा नहीं करते हैं, वे अभव्य (मानसिक तनाव में रुचि रखनेवाले) (हैं) और जो उसको स्वीकार करते हैं, (वे) भव्य (समता में रुचि रखनेवाले) (हैं)।