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प्रवचनसार में शुद्धोपयोग की महिमा
एवं उस संबंधी गाथाओं का व्याकरणिक विश्लेषण
-डॉ० कमलचन्द सोगाणी
___ शुद्धोपयोग (शुद्ध चैतन्य) की प्राप्ति संसार में कर्म करने की एक ऐसी शैली का व्यक्ति के जीवन में उदय है जिसके फलस्वरूप व्यक्ति कर्म करते हुए बन्धन से मुक्त रहता है। इस कारण उसके सभी कर्म राग-द्वेष-रहित होते हैं। प्रासक्ति-रहित होते हैं। इस कारण उसके सभी कर्म मूर्छारहित होते हैं, आत्मा की पूर्ण जागरूकता सहित होते हैं । ऐसे व्यक्ति को प्ररहंत भी कहा जाता है और केवलज्ञानी भी। संसार में हमें दो तरह के ही लोग दिखाई देते हैं (i) अशुभ कर्म करनेवाले (ii) शुभ कर्म करनेवाले । अशुभोपयोग (अशुभ चैतन्य) के कारण अशुभ कर्म किए जाते हैं और शुभोपयोग (शुभ चैतन्य) के कारण शुभ कर्म । शुभोपयोग या अशुभोपयोग द्वारा किए गए कर्म व्यक्ति को बन्धन में डालते हैं। इनके कारण व्यक्ति मानसिक तनाव से ग्रस्त रहता है । शुभ कर्म करनेवालों का मानसिक तनाव मंद होता है और अशुभ कर्म करनेवालों का मानसिक तनाव तीव्र होता है । प्रथम प्रकार के व्यक्ति को मंदकषायी और दूसरे प्रकार के व्यक्ति को तीव्रकषायी भी कहा गया है किन्तु शुद्धोपयोगपूर्वक किये गये कर्म कषायरहित होते हैं । इसलिये इन कर्मों में मानसिक तनाव का अभाव रहता है । आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा रचित प्रवचनसार में शुद्धोपयोगी या अरहंत या केवली की प्राप्तियों का दिग्दर्शन कराया गया है । उनसे संबंधित कुछ गाथाओं को हम यहाँ अनुवाद-सहित प्रस्तुत कर रहे हैं। साथ में व्याकरणिक विश्लेषण भी दिया जा रहा है जिससे मूलानुगामिता बनी रहे और पाठक स्वयं अनुवाद की जांच कर
सकें।