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जैनविद्या
9-व्यवहार नय से सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-मय-रत्नत्रय मोक्षमार्ग है, किंतु निश्चय
नय से सम्यग्दर्शनादि गुणों और आत्मा में अभेद होने से गुणनिधान प्रात्मा ही मोक्षमार्ग है।
-द्रव्यसंग्रह 19, समयसार 7
इस प्रकार प्राचार्यों ने अनेकांत को जिनवाणी का प्राण मानकर दोनों नयों द्वारा निष्पक्ष भाव से आत्मा का वर्णन किया है। आचार्यश्री कुन्दकुन्द ने समयसार में यह भी स्पष्ट कर दिया है कि जीव में कर्म बंधे हैं और वे जीव को स्पर्शते हैं, ऐसा व्यवहार नय का कथन है और जीव में कर्म न बँधता है और न उसे स्पर्शता है, ऐसा शुद्ध नय का कथन है किंतु जीव में कर्म बंधे हैं या नहीं बंधे हैं ये दोनों विकल्प नयों के पक्ष हैं परन्तु समयसार पक्षातिक्रांत है । ज्ञानी दोनों नयों से प्रात्म-स्वरूप को जानता है किंतु किसी नय का पक्ष ग्रहण नहीं करता क्योंकि वह ज्ञायकस्वभावी होने से निष्पक्ष होता है । यद्यपि सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ये उसी शुद्ध समयसार के नाम हैं जिनसे वह भेद-रत्नत्रय के रूप में व्यवहार को प्राप्त है किंतु वस्तुत: वह सम्पूर्ण नयों के पक्षपातरहित (निर्विकल्प) समयसार है जिसे प्रवक्तव्य भी कहा जा सकता है ।
प्रश्न-यदि सम्यग्ज्ञान के लिए दोनों नयों से आत्मतत्त्व का ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है तो व्यवहार का आश्रय न लेकर निश्चय का आश्रय लेने का उपदेश समयसार में क्यों दिया और निश्चय की दृष्टि में व्यवहार का निषेध क्यों किया व व्यवहार को हेय क्यों बताया ?
उत्तर-आत्मा की संसार में क्या स्थिति या दशा है इसे जानने के लिए निश्चय और व्यवहार नय रूपी दोनों नेत्रों को खुले रखना आवश्यक है जिससे आत्मद्रव्य और उसका शुद्ध व अशुद्ध परिणमन भी ज्ञात हो जाय किंतु फिर आत्म-कल्याण करने के लिए क्या हेय और क्या उपादेय है इस दृष्टि से सम्पूर्ण व्यावहारिक विकल्पों का त्याग कर जो कि राग-द्वेष-मोहादि-रूप विकार हैं और जिन के करने से बंध होता है उन्हें हेय जान व निश्चय के विषयभूत शुद्ध चैतन्यमयी प्रात्मस्वरूप को उपादेय मान उसमें लीन हो जाना निर्वाण प्राप्ति के लिए अनिवार्य है। इस कारण पराश्रित सम्पूर्ण व्यवहार का निषेध किया है और उसे हेय भी बताया है। जब तक आत्मसाधक श्रावक या मुनिजन व्यवहार नय के विषय-भूत अध्यवसानों (रागद्वेषादि विकारी विकल्पों) का परित्याग कर शुद्ध निश्चय के विषयभूत निर्विकल्प चैतन्य स्वभाव का आश्रय लेकर आत्मलीन न होंगे तब तक शुद्धात्मा की उपलब्धि (मक्ति की प्राप्ति) संभव नहीं है. अत: संपर्ण संकल्पविकल्पों का जो पराश्रित व बंध के कारण हेय हैं और व्यवहार के विषय हैं, त्याग कराकर स्वाश्रित शुद्ध आत्मा की शरण लेने का उपदेश है। इससे यह न समझना चाहिये कि अध्यवसानों का अस्तित्व ही नहीं है या उनका प्रतिपादक व्यवहार नय सर्वथा मिथ्या है जिसके विषय अध्यवसान (रागद्वेषादि भाव) हैं ।