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जैनविद्या
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यहाँ यह समझ लेना भी आवश्यक है कि आगम में जो व्यवहारधर्म के प्राचरण करने का उपदेश दिया है वह इसी उद्देश्य से दिया है कि जिससे भव्य को निश्चय-धर्म जो कि आत्मस्वरूप में लीनतारूप है, की प्राप्ति की योग्यता प्राप्त हो जाय और वह अशुभ का परित्याग कर शुभ भाव व सदाचार में प्रवृत्ति द्वारा आत्मसाधना कर सके जिसे पापाचार और विषय-कषाय में लिप्त रहते हुए कर सकना असंभव है, किंतु जब निश्चयाश्रित आत्म-लीनता-रूप साध्य की प्राप्ति हो जावेगी तब व्यवहारधर्म स्वयमेव निश्चय में लीन हो जावेगा । इसीलिए आचार्यों ने व्यवहारधर्म को निश्चयधर्म का साधन और निश्चयधर्म को साध्य भी कहा है। अंत में शुद्धात्मा की प्राप्ति हो जाने पर निश्चय-व्यवहार दोनों के पक्ष-विपक्ष रहित स्थिति स्वयमेव हो जाती है जिसे नयपक्षातिक्रांत समयसार घोषित किया गया है ।
सारांश यह है कि आत्म-कल्याण के लिए जिज्ञासुत्रों को बिना किसी नय का पक्षपात किये सर्वप्रथम आत्मा का गुण-पर्यायात्मक स्वरूप जान लेना आवश्यक है । तत्पश्चात् हेयोपादेय के विवेकपूर्वक अपनी शक्ति और पदानुसार व्यवहारधर्म का परिपालन करते हुए निश्चयधर्म की उपासना कर दूसरे शब्दों में धर्म-ध्यानपूर्वक शुद्ध ध्यानी बन आत्मशुद्धि कर अपने लक्ष्य परमात्मपद की प्राप्ति करने का प्रयत्न करना चाहिये जिसमें अविनाशी सुख सन्निहित है । यही जिनवाणी और समयसार का सारभूत उपदेश है।