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________________ जैनविद्या 127 यहाँ यह समझ लेना भी आवश्यक है कि आगम में जो व्यवहारधर्म के प्राचरण करने का उपदेश दिया है वह इसी उद्देश्य से दिया है कि जिससे भव्य को निश्चय-धर्म जो कि आत्मस्वरूप में लीनतारूप है, की प्राप्ति की योग्यता प्राप्त हो जाय और वह अशुभ का परित्याग कर शुभ भाव व सदाचार में प्रवृत्ति द्वारा आत्मसाधना कर सके जिसे पापाचार और विषय-कषाय में लिप्त रहते हुए कर सकना असंभव है, किंतु जब निश्चयाश्रित आत्म-लीनता-रूप साध्य की प्राप्ति हो जावेगी तब व्यवहारधर्म स्वयमेव निश्चय में लीन हो जावेगा । इसीलिए आचार्यों ने व्यवहारधर्म को निश्चयधर्म का साधन और निश्चयधर्म को साध्य भी कहा है। अंत में शुद्धात्मा की प्राप्ति हो जाने पर निश्चय-व्यवहार दोनों के पक्ष-विपक्ष रहित स्थिति स्वयमेव हो जाती है जिसे नयपक्षातिक्रांत समयसार घोषित किया गया है । सारांश यह है कि आत्म-कल्याण के लिए जिज्ञासुत्रों को बिना किसी नय का पक्षपात किये सर्वप्रथम आत्मा का गुण-पर्यायात्मक स्वरूप जान लेना आवश्यक है । तत्पश्चात् हेयोपादेय के विवेकपूर्वक अपनी शक्ति और पदानुसार व्यवहारधर्म का परिपालन करते हुए निश्चयधर्म की उपासना कर दूसरे शब्दों में धर्म-ध्यानपूर्वक शुद्ध ध्यानी बन आत्मशुद्धि कर अपने लक्ष्य परमात्मपद की प्राप्ति करने का प्रयत्न करना चाहिये जिसमें अविनाशी सुख सन्निहित है । यही जिनवाणी और समयसार का सारभूत उपदेश है।
SR No.524759
Book TitleJain Vidya 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1990
Total Pages180
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size15 MB
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