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________________ परदव्वादो दुग्गइ परदव्वरो बज्झदि विरो मुच्चेइ विविहकम्मेहिं । एसो जिणउवदेसो समासदो बंधमुक्खस्स ॥ 13 ॥ -परद्रव्य में अनुरक्त (प्राणी) विभिन्न प्रकार के कर्मों के द्वारा बांधा जाता (है), (परद्रव्य से) अनासक्त (प्राणी विविध प्रकार के कर्मों से) छुटकारा पाता है । बंध (अशान्ति) और मोक्ष (शान्ति) के विषय में यह संक्षेप से जिन-उपदेश है । परदव्वादो दुग्गइ सद्दव्वादो हु सग्गई होई। इय रणाऊरण सदव्वे कुरणह रई विरय इयरम्मि ॥16॥ -परद्रव्य के कारण दुर्गति (होती है), स्वद्रव्य के कारण निश्चय ही सुगति होती है । इस तरह (यह) जानकर स्वद्रव्य में अनुराग करो (और) शेष से विरति । -मोक्षपाहुड
SR No.524759
Book TitleJain Vidya 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1990
Total Pages180
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size15 MB
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