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________________ समयसार का 'समय' - डॉ. महेन्द्रसागर प्रचण्डिया दिगम्बर साहित्य के महान् प्रणेताओं में प्राचार्य कुन्दकुन्द का स्थान बड़े महत्त्व का है। इनकी सभी रचनाएँ शौरसेनी प्राकृत में रची गई हैं। प्रवचनसार, समयसार और पंचास्तिकाय आपके विश्रुत ग्रंथराज हैं । समयसार सर्वोत्कृष्ट आध्यात्मिक ग्रन्थराज है । 'समयसार का समय' विषय पर संक्षेप में चर्चा करना हमारा मूलाभिप्रेत रहा है । समय शब्द सम् उपसर्गपूर्वक ग्रय शब्द के सहयोग से संगठित हुआ है । सम् का अर्थ है— एक साथ, एक काल में और अय गतौ धातु का अर्थ गमन होता है । इस प्रकार सम् तथा श्रय का अर्थ यह हुआ कि एक साथ एक रूप रहकर जाना, एक समय में एक अवस्था से दूसरी अवस्थारूप होना । समस्य कालस्य सारः क्षरणादि पलात्मक: समयसारः स च द्विविधः कार्यसमयसारः कारणसमयसारश्च । लोक में प्रचलित समय-क्षण, मिनट, सैकण्ड का बोध कराता है । जैन वाङ्मय में इसका अर्थ भिन्न है । वहाँ समय स्वभाव में स्थिर रहने को कहा जाता है । षद्रव्य - जीव, अजीव, धर्म, अधर्म, आकाश तथा काल अपने स्वभाव में स्थिर रहते हैं । अतः वह समय है । इन सब में आत्मद्रव्य ज्ञायक होने के कारण सारभूत है । आत्मद्रव्य का ही मुख्यता से कथन करने के कारण इस ग्रंथ का नाम समयसार है । स्वभाव, ध्येय, परम, आत्मा, तत्त्व आदि समयसार के अपर नाम हैं । समयसार दो प्रकार से वर्णित है । यथा 1. कार्यसमयसार 2. काररणसमयसार
SR No.524759
Book TitleJain Vidya 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1990
Total Pages180
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size15 MB
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