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________________ 130 जैनविद्या कार्यसमयसार -क्रियातीत प्रशस्त अनन्तज्ञानादि से युक्त मध्यस्थ तथा शुद्धात्मा कार्य समयसार है । जबकि कारण समयसार में जीव के स्वभाव का ध्यान करने से कर्मों का क्षय होता है। इसी को प्राचार्य कुन्दकुन्द स्वसमय और परसमय का लाक्षणिक उद्बोध कराते हुए स्पष्ट कहते हैं - जीवो चरित्तदंसणणागठिदो तं हि ससमयं जाणे। पोग्गल कम्मपदेसट्ठिदं च तं जाण परसमयं ॥ 2 ॥ -अर्थात् जो जीव शुद्ध दर्शन-ज्ञान-चारित्र में स्थित है उसे निश्चय से स्वसमय जानना चाहिए और जो जीव पौद्गलिक कर्मप्रदेशों में स्थित है उसको परसमय समझना चाहिए। पंडित बलभद्रजी 'समयसार' में पढमो जीवाधियारो की द्वितीय गाथा में 'जाणे' और 'जाण' के आशय को विश्लेषित करते हुए लिखते हैं-यहाँ 'जाणे' पद मुमुक्षुत्रों के लिए स्वेच्छापूर्वक जानने के प्राशय में प्रयुक्त हुआ है अर्थात् यह पद इच्छावाचक है और 'जाण' पद है आज्ञावाचक अतः जो जीव शुद्ध प्रात्माश्रित हैं वे स्वसमय कहलाते हैं । अरहन्त और सिद्ध ही स्वसमय हैं. क्षीणमोह गुणस्थान तक जीव परसमय है । समय अर्थात् आत्मा अनादिकाल से कालकवलित पर्याय-संग होने से भव-भ्रमण कर रही है । परपदार्थ में आसक्त यह भला प्राणी उसी के साथ बंधा रहता है। रागशुभ-अशुभ उसे अनंतानुबंधी प्रत्याख्यान, अप्रत्याख्यान तथा संजुलन स्तरीय ग्रंथियों में गुंथा रखता है । अशुभरागबंध तो जीव के ज्ञानावरणीय कर्मोदय का परिणाम होता है किन्तु शुभराग-पूजापाठ तप, संयमाचरण आदि प्राणी को लोहे की जंजीर की अपेक्षा स्वर्ण की श्रृंखला में बाँधने के समान है। जंजीर चाहे लोहे की हो चाहे स्वर्ण की अन्ततोगत्वा जंजीर-बंधन तो बंधन ही है। प्राचार्य कुन्दकुन्द सहजभाव में व्यक्त करते हैं जह बंधे चितंतो बंधण बद्धो ण पावदि विमॉक्खं । तह बंधे चितंतो जीवो वि ण पावदि विमॉक्खं ॥ 291॥ -अर्थात् जिस प्रकार बंधन में पड़ा हुआ कोई पुरुष-प्राणी उस बंधन की चिन्ता करता हुआ चिन्ता करने मात्र से छुटकारा नहीं पाता, उसी प्रकार जीव भी कर्मबंध की चिन्ता करने मात्र से मुक्ति नहीं पाता। कर्म-बंध की कहानी बड़ी विचित्र और लम्बी है । सारभूत यह है कि इस चक्कर में फंसा हुआ यह प्राणी अपने स्वरूप को जानने और पहिचानने में सदा असमर्थ रहा है । जैसे-जैसे यह जीव बोध की ओर प्रवृत्त होता जाता है वैसे-वैसे ही स्वतंत्रता का अनुभव करने लगता है । विशुद्ध आत्मा सर्वथा स्वातंत्र्यमूला है इसलिए लोक में स्वावलम्बन की महिमा है । आज शाब्दिक चर्चा का बाहुल्य है। शास्त्र-वाची शब्द-पद का विश्लेषण करते रहते हैं और व्यवहार-निश्चय के व्याज से बद्ध आत्मा को निर्बन्ध बनाने का विवेचन किया करते हैं । कर्ममुक्ति विवेचन से नहीं, पुरुषार्थ से सम्भव होती है । प्राचार्य कुन्दकुन्द स्पष्ट घोषित करते हैं कि लिंग-मोही समयसार को नहीं जानते । यथा
SR No.524759
Book TitleJain Vidya 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1990
Total Pages180
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size15 MB
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