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________________ जैनविद्या 131 पासंडिय लिंगेसु व गिहिलिगेसु व बहुप्पयारेसु । कुव्बंति जे ममत्तं तेहि रण णादं समयसारं ।। 413 ॥ -जो लोग बहुत प्रकार के साधु-लिंगों अर्थात् चिह्नों में अथवा गृहस्थ लिंगों-चिह्नों में ममत्व करते हैं, उन्होंने समयसार को अर्थात् शुद्धात्मस्वरूप को नहीं जाना है। वे और स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि बाह्य लिंग मोक्ष का मार्ग नहीं है । यथा-- पासंडिय लिंगारिण य गिहिलिंगारिण य बहुप्पयाराणि । धेत्तुं वदंति मूढ़ा लिंगमिरणं मोक्खमग्गो त्ति ॥ 408 ॥ रण दु होदि मोक्खमग्गो लिंग जं देहरिणम्ममा अरिहा । लिगं मुइत्तु दंसणणारणचरित्ताणि सेवंते ॥ 409 ॥ -अर्थात् अनेक प्रकार के साधु-वेष और गृहस्थ-वेष धारण करके अज्ञानीजन कहते हैं कि वेष ही मोक्षमार्ग है किन्तु द्रव्यलिंग मोक्ष का मार्ग नहीं है क्योंकि अर्हन्तदेव देह से ममत्वहीन हुए (बाह्य) लिंग को छोड़कर दर्शन, ज्ञान, चारित्र का सेवन करते हैं । क्रिया और अज्ञान मिलकर रूढ़ि को जन्म देते हैं जबकि क्रिया और ज्ञान मिलकर साधना हो जाती है । जब साधक रूढ़िमुखी हो जाता है तब उसका किया गया सारा श्रम निस्सार हो जाता है । ज्ञानपूर्वक किया गया श्रम सर्वथा सार्थक होता है। ज्ञानी भी यदि भेदविज्ञानी नहीं है तो उसका भी कल्याण नहीं। एक रूढ़िवादी अज्ञानी अथवा ज्ञानी किन्तु भेदविज्ञानी नहीं और दूसरा ज्ञानी और भेदविज्ञानी एक ही विश्व-वीथिका पर चलता है तो भेदविज्ञानी कर्मबंध बिना, असंगवृत्तिपूर्वक पार हो जाता है किन्तु अभेदविज्ञानी संग अर्थात् लगावपूर्वक पर-पदार्थों में ससंग हो जाता है और बाहर प्रबंधित होकर निकल पाता है। इसीलिए प्राचार्य स्पष्ट करते हैं कि कर्म-मुक्ति अर्थात् मोक्षमार्ग तो दर्शन, ज्ञान और चारित्र की समन्विति ही है । यथा ण वि एस मोक्खमग्गो पासंडिय गिहिमयाणि लिंगारिण । दंसणणाणचरित्तारिण मोक्खमग्गं जिणा विति ॥ 410 ॥ -अर्थात् साधु और गृहस्थ के लिंग अर्थात् चिह्न भी मोक्षमार्ग नहीं हैं, दर्शन, ज्ञान और चारित्र मोक्षमार्ग है ऐसा जिनेन्द्रदेव कहते हैं। इसीलिए गृहस्थ और साधुओं द्वारा ग्रहण किये हुए लिंगों को छोड़कर अपनी आत्मा को दर्शन, ज्ञान और चारित्र स्वरूप मोक्षमार्ग में लगाना चाहिए। ममत्वरहित पदार्थबोध और उस पर दृढ़ श्रद्धान-विश्वास रखना वस्तुतः दर्शन कहलाता है । पदार्थ-बोध के साथ हेय और ज्ञेय भेद-बोध अर्थात् भेद-विज्ञानपूर्वक बोध ही ज्ञान कहलाता है। चयरित्तकरं चारित्तं । जो पर-निधियां जोड़-बटोर रखी हैं, जिनमें लिप्त हैं, उनका चय उपचय और संचय छूटे तब चारित्र का रूप निखरता है । ऐसी दशा में जितने साधन-कारण और प्रयोग व्यवहार हैं उनका ज्ञानी, भेदविज्ञानी उपयोग तो करता है किन्तु उनमें ममत्व नहीं रखता। उसकी पर-पदार्थजन्य पूरी ममत्व-चिपकन
SR No.524759
Book TitleJain Vidya 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1990
Total Pages180
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size15 MB
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