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जैनविद्या
समाप्त हो जाती है, अज्ञानी-रूढ़िवादी उन शुभकारणों अथवा लिंगों से प्रायः जुड़-चिपक जाता है।
जागतिक अथवा आध्यात्मिक दोनों मार्ग पर चलना है, ज्ञानी या भेदविज्ञानी तथा अज्ञानी दोनों यात्राओं के परिणाम तो भिन्न होंगे ही। इसीलिए हमारा चरण जागृत हो उठे तभी वह सदाचरण होगा और सदाचरण सदा मंगलाचरण का प्रवर्तन करता है।
इस प्रकार समयसार के समय की सुन्दरता को प्रकाशित करते हुए प्राचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं
एयत्तरिणच्छयगदो समग्रो सम्वत्थ सुन्दरो लोगे ।
बंधकहा एयत्ते तेण विसंवादिणी होदि ॥3॥ -अर्थात् जीव अपने स्वभाव में रहने पर ही शोभा को प्राप्त होता है । यद्यपि 'समय' शब्द से धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव सभी द्रव्यों के लिए अर्थ-बोध आ जाता है तथापि यहाँ 'समय' से वस्तुतः अभिप्रेत है आत्मा । पुद्गल कर्म के साथ जीव का बंध होने पर जीव में विसंवाद खड़ा होता है। इसी प्रकार धर्म, अधर्म आदि सभी अपने स्वभाव में ही सुन्दर होते हैं ।
उपसंहाररूप प्राचार्य कुन्दकुन्द समय-भेंट की महनीयता का मूल्य-अंकन करते हैं । यथा
जो समय पाहुडमिणं पढिदूण य प्रत्थतच्चदो णाएं ।
प्रत्थे ठाहिदि चेदा सो होहिदि उत्तमं सोक्खं ॥ 415॥ –अर्थात् जो भव्य आत्मा इस समयप्राभृत-भेंट को पढ़कर और इसके अर्थ और तत्त्व को जानकर अर्थभूत शुद्धात्मा में ठहरता है वही उत्तम सौख्यस्वरूप हो जाता है ।