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जैनविद्या
3. परिहार -रागादि दोषों का निवारण करना ।
धारणा –चित्त को स्थिर करना ।
निवृत्ति -विषय-कषायों में जानेवाली प्रवृत्ति को रोककर उससे अपने
को पृथक करना । 6. निन्दा -आत्मसाक्षीपूर्वक अपनी गलतियों पर स्वयं अपनी निन्दा करना। __ गर्दा -अपने प्राचार्य के समक्ष सम्पूर्ण दोषों से रहित होकर सरल
चित्त से कुछ न छिपाते हुए अपने दोषों का प्रकाशन करना । 8. शुद्धि -गुरु द्वारा प्रदत्त प्रायश्चित्त द्वारा प्रात्मशुद्धि करना। .
ये आठ क्रियाएँ साधक के परिणामों को विशुद्ध करके उसे पुन: अपने व्रतपालन में निःशल्य बनाती हैं । दोषों के निराकरण के लिए प्रायश्चितादि पाठ क्रियाओं का प्रयोग साधु के लिए अमृतसमान है तथा इनके विपरीत आचरण करना साधु के लिए विषरूप है । अर्थात् जहाँ प्रतिक्रमणादि क्रियाएँ साधु-जीवन के लिए जीवनसाथी हैं वहाँ उनके विपरीत ये पाठ क्रियाएँ साधु-जीवन का घात करनेवाली विषाक्त क्रियाएं हैं ।
मुनि के चारित्र-प्ररूपक सभी प्राचार-ग्रन्थों में इन प्रतिक्रमणादि क्रियाओं का विधान है । मुनि के लिए छह आवश्यक क्रियाओं का प्रतिपादन भी मूलाचार आदि में प्ररूपित है जिन्हें उन्हें प्रतिदिन करना ही चाहिए । वे हैं
1. समता (सामायिक) 2. वन्दना (पंचपरमेष्ठी को नमस्कार) 3. स्तुति (पंचपरमेष्ठी का गुणानुवाद) 4. प्रतिक्रमण
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5. स्वाध्याय (आत्म व पर के हितार्थ आगम का पठन-पाठन)
6. कायोत्सर्ग (देह के ममत्व का सर्वथा त्याग कर आत्मध्यान करना)
इन छह आवश्यक कार्यों में उन आठों क्रियाओं का प्रकारान्तर से संक्षेप में समावेश है । आवश्यक का अर्थ ही है जरूरी क्रियाएँ । मुनि इन्हें बिना अन्तर डाले प्रतिदिन करते ही हैं । यदि वे इन आवश्यकों को न करें तो उनका मुनिपना सदोष है । यह तो सहज ही समझ में आ जाता है कि दोषों का निराकरण न करें तो व्रत तो सदोष होंगे ही पर साथ ही यदि वे आवश्यक क्रियाएँ अनावश्यक कर दें तो मुनिव्रत ही समाप्त हो जायगा।