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________________ 68 जैनविद्या 3. परिहार -रागादि दोषों का निवारण करना । धारणा –चित्त को स्थिर करना । निवृत्ति -विषय-कषायों में जानेवाली प्रवृत्ति को रोककर उससे अपने को पृथक करना । 6. निन्दा -आत्मसाक्षीपूर्वक अपनी गलतियों पर स्वयं अपनी निन्दा करना। __ गर्दा -अपने प्राचार्य के समक्ष सम्पूर्ण दोषों से रहित होकर सरल चित्त से कुछ न छिपाते हुए अपने दोषों का प्रकाशन करना । 8. शुद्धि -गुरु द्वारा प्रदत्त प्रायश्चित्त द्वारा प्रात्मशुद्धि करना। . ये आठ क्रियाएँ साधक के परिणामों को विशुद्ध करके उसे पुन: अपने व्रतपालन में निःशल्य बनाती हैं । दोषों के निराकरण के लिए प्रायश्चितादि पाठ क्रियाओं का प्रयोग साधु के लिए अमृतसमान है तथा इनके विपरीत आचरण करना साधु के लिए विषरूप है । अर्थात् जहाँ प्रतिक्रमणादि क्रियाएँ साधु-जीवन के लिए जीवनसाथी हैं वहाँ उनके विपरीत ये पाठ क्रियाएँ साधु-जीवन का घात करनेवाली विषाक्त क्रियाएं हैं । मुनि के चारित्र-प्ररूपक सभी प्राचार-ग्रन्थों में इन प्रतिक्रमणादि क्रियाओं का विधान है । मुनि के लिए छह आवश्यक क्रियाओं का प्रतिपादन भी मूलाचार आदि में प्ररूपित है जिन्हें उन्हें प्रतिदिन करना ही चाहिए । वे हैं 1. समता (सामायिक) 2. वन्दना (पंचपरमेष्ठी को नमस्कार) 3. स्तुति (पंचपरमेष्ठी का गुणानुवाद) 4. प्रतिक्रमण . 5. स्वाध्याय (आत्म व पर के हितार्थ आगम का पठन-पाठन) 6. कायोत्सर्ग (देह के ममत्व का सर्वथा त्याग कर आत्मध्यान करना) इन छह आवश्यक कार्यों में उन आठों क्रियाओं का प्रकारान्तर से संक्षेप में समावेश है । आवश्यक का अर्थ ही है जरूरी क्रियाएँ । मुनि इन्हें बिना अन्तर डाले प्रतिदिन करते ही हैं । यदि वे इन आवश्यकों को न करें तो उनका मुनिपना सदोष है । यह तो सहज ही समझ में आ जाता है कि दोषों का निराकरण न करें तो व्रत तो सदोष होंगे ही पर साथ ही यदि वे आवश्यक क्रियाएँ अनावश्यक कर दें तो मुनिव्रत ही समाप्त हो जायगा।
SR No.524759
Book TitleJain Vidya 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1990
Total Pages180
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size15 MB
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