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________________ आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा प्रतिपादित अमृतकुम्भ और विषकुम्भ -पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री यह बात निःसंशय है कि अध्यात्म का अमृत तत्त्वदृष्टिवालों को ही पच सकता है । वह गरिष्ठ है, उसके लिए पाचनशक्ति चाहिए । आत्महित की दृष्टिवालों के लिए वह पाथेय है । अनात्मदृष्टियों में मन्दकषायवाले जिज्ञासु उसका लाभ उठा सकते हैं पर जिनकी कषाय मन्द नहीं हुई वे इसका विपरीत दृष्टि से अपनी कषाय-पोषण करनेवाला अर्थ ही . लगाकर अपना व पर का अहित करते हैं । शिष्य यदि अहम्मन्य हो तो गुरु का उपदेश उसे लगता नहीं है । वह गुरु के विपरीत ही चलता है और उन्हें भी अपवादित करता है। समयसार के मोक्षाधिकार की अन्तिम गाथाएँ बहुत महत्त्वपूर्ण तत्त्व का उद्घाटन करती हैं। यह सामान्य नियम है कि छठे-सातवें गुणस्थानवाले मुनिजन कभी प्रमाददशा में कुछ व्रतों में दोष भी उत्पन्न करनेवाले होते हैं। वे अपने को दोषरहित बनाने के लिए प्रतिक्रमणादि निम्न क्रियाएं करते हैं 1. प्रतिक्रमण, 2. प्रतिशरण, 3. परिहार, 4. धारणा, 5. निवृत्ति, 6. निन्दा, 7. गर्दा और 8. शुद्धि । इनका अर्थ निम्न प्रकार है । 1. प्रतिक्रमण-किये हुए या होगये दोषों का निराकरण कर पूर्व जैसी स्थिति में लौट आना। ___2. प्रतिशरण-चारित्र की शरण को प्राप्त करना या पंचपरमेष्ठी की शरण ग्रहण करना ।
SR No.524759
Book TitleJain Vidya 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1990
Total Pages180
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size15 MB
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