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हिंसा
मरदु व जिवदु व जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा । पयवस्स पत्थि बंधो हिंसामेत्तेण समिदीसु ॥ 3-17॥ प्र.सा.
-दूसरा जीव या मरे या जीवित रहे, अयत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति (असावधानी से कार्य) करनेवाले के हिंसा निश्चित है।
प्रभवसिदेण बंधो सत्ते मारेहि मा व मारेहि। एसो बंधसमासो जीवाणं णिच्छयरणयस्स ॥ 262 ॥ स.सा. '
-प्राणियों को मारो अथवा न मारो किन्तु (मारने के) विचारमात्र से ही (हिंसा होती है जिससे कर्म) बंध होता है । निश्चयनय से यह जीवों का कर्मबंध का संक्षेप है ।